कश्मीर समस्या पर निबंध: Essay on Kashmir problem

कश्मीर समस्या निबंध

Essay on Kashmir problem-full essay in Hindi 2019 / कश्मीर समस्या पर निबंध: राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति की शतरंज हिंदी में निबंध 


आधार-बिंदु: कश्मीर समस्या पर निबंध

  1. कश्मीर का उलझा हुआ सवाल
  2. कश्मीर समस्या का इतिहास
  3. पाकिस्तान का विरोध
  4. शिमला समझौता
  5. कश्मीर समस्या के विविध पक्ष
  6. कश्मीर में लड़ा गया चौथा युद्ध: करगिल
  7. कश्मीर समस्या का समाधान

कश्मीर का उलझा हुआ सवाल:

भारत के विभाजन से जो अनेक समस्याएं खड़ी हुई हैं कश्मीर की समस्या भी उनमें से एक है। कश्मीर की समस्या न केवल भारत एवं पाकिस्तान के बीच सीमा-विवाद की समस्या है। बल्कि यह भारत और पाकिस्तान के विभाजन के मूल आधार और तर्क-धर्म के आधार पर द्वी-राष्ट्र को फिर से जीवित बनाए रखने का आधार भी है । कश्मीर की समस्या केवल भारत और पाकिस्तान के बीच की नहीं है बल्कि पश्चिम के साम्राज्यवादी राष्ट्रों की उन दुष्ट चालों का भी साधन है जो भारतीय जनमानस को 1947 से पूर्व तक भी कमज़ोर और विवादग्रस्त बनाकर उसका शोषण करते रहे और पिछले 50 वर्षों में भारत और पाकिस्तान को राजनीतिक स्वतंत्रता देकर भी आर्थिक-दृष्टि से शोषण करते रहे हैं, और आगे भी ऐसा ही करते रहना चाहते हैं । इस प्रकार कश्मीर समस्या केवल राजनयिक समस्या ही नहीं है बल्कि यह राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक दृष्टि से साम्राज्यवादी शोषण का प्रतीक रूप है। दुर्भाग्य यह है कि भारत और पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ अपने हितों को पूरी तरह से न समझ पाने और एक-दूसरे का पक्ष नहीं समझ पाने के कारण आपस में बराबर टकराते रहे हैं तथा इसमें 1947 की मुठभेड़ के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बल्कि दक्षिण एशिया यहाँ तक कि भारत और पाकिस्तान से जुड़ी हुई समस्त विश्व राजनीति और संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए भी येन-केन-प्रकारेण विचारणीय मुद्दा बना हुआ है।

कश्मीर समस्या पर निबंध

कश्मीर समस्या पर निबंध

कश्मीर समस्या का इतिहास:

भारत का जम्मू कश्मीर राज्य तीन भागों से मिलकर बना हुआ है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख । यह राज्य ब्रिटिश शासन के समय ही एक राजनीतिक इकाई के रूप में गठित हो गया था। शेख अब्दुल्ला ने 1939 में नेशनल कांफ्रेंस पार्टी का गठन किया और 1946 में ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चलाया जो कश्मीर के महाराजा के लिए चुनौती थी। भारतीय कांग्रेस पार्टी ने शेख़ अब्दुल्ला को पूर्ण समर्थन दिया। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो कश्मीर के महाराजा भारत या पाकिस्तान में कश्मीर विलय को लेकर कोई निर्णय नहीं ले पाए। 22 अक्टूबर, 1947 को उत्तरी सीमा प्रांत के क़बालियों के साथ मिलकर पाकिस्तानियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। 26 अक्टूबर, 1947 को तत्कालीन महाराजा ने भारत सरकार से सैनिक सहायता की माँग की तथा कश्मीर को भारत विलय करने की प्रार्थना की । भारत सरकार ने कश्मीर को भारत में मिला लिया और सैनिक सहायता पहुँचाकर क़बालियों को खदेड़ दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव पर 1 मई, 1949 की मध्य रात्रि को युद्ध विराम लागू हो गया । फलस्वरूप कश्मीर का 32 हजार वर्गमील क्षेत्र पाकिस्तान के पास रह गया जिसे पाकिस्तान ‘आज़ाद कश्मीर’ कहता है तथा 53 हज़ार वर्गमील क्षेत्र भारत के पास रहा जो भारत में जम्मू एवं कश्मीर’ है , महाराजा ने इस संबंध को हल करने हेतु शेख़ अब्दुल्ला को मार्च 1948 में कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया तथा कश्मीर राज्य के लिए संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के निर्माण की घोषणा की। 20 जनवरी1951 को सभा ने एक अंतरिम संविधान स्वीकार किया जिसमें महाराज की शक्तियों को समाप्त कर दिया गया। फ़रवरी 1954 में संविधान सभा ने कश्मीर के भारत विलय की पुष्टि कर दी। 26 जनवरी1957 को जम्मू-कश्मीर का संविधान लागू हो गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया । जम्मू-कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका अपना एक संविधान है । इस संविधान की प्रस्तावना में जम्मू-कश्मीर के विलय की बात की गई है, यह भी कहा गया है कि जम्मू कश्मीर भारत संघ का अखंड भाग है और रहेगा तथा अनुच्छेद 370 के द्वारा कश्मीर में स्थाई रूप से रहनेवालों को विशेष स्थिति प्रदान की गई है। इस स्थिति के अनुसार वहाँ के निवासी भारत के किसी भी प्रांत में निवास कर सकते हैं, सेवा कर सकते हैं, संपत्ति खरीद सकते हैं किंतु भारत के अन्य प्रदेशों के नागरिक कश्मीर में न स्थाई रूप से रह सकते हैं, न कश्मीर शासन की सेवा में शामिल हो सकते हैं और न वहाँ ज़मीन ख़रीद सकते हैं।

पाकिस्तान का विरोध:

कश्मीर का भारत में यह विलय पाकिस्तान सरकार को प्रारंभ से ही अखरता रहा है। 1947 के बाद की पाकिस्तान की सरकारें भारत के अधीन कश्मीर पर भी अपना दावा प्रस्तुत करती रही हैं तथा उन्होंने 1947, 1965, 1971 एवं 1999 में भारत के साथ युद्ध किया है; हालाँकि उसे हर बार पराजित होना पड़ा है । पाकिस्तान सरकार अब सीधे युद्ध को बंद कर, कश्मीर के युवकों को गुमराह कर, अपनी सेना को उग्रवादी एवं आतंकवादी बनाकर अपने यहाँ के प्रशिक्षण शिविरों में उन्हें प्रशिक्षण देकर तथा उन्हें हथियारों से लैसकर न केवल जम्मू-कश्मीर सीमा में बल्केि अन्य राज्यों की सीमाओं में भी प्रवेश कराकर उग्रवाद का संचालन कर रही है। पाकिस्तान कश्मीर के लोगों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जनमत संग्रह की माँग करता रह है। भारत का पक्ष यह रहा है कि 1947 में जिन स्वतंत्र रियासतों के शासकों ने भारत में अपने-आपको विलय करने का प्रस्ताव भेजा उनको भारत संघ में स्वीकार कर लिया गया । आज़ादी से पूर्व भारत और पाकिस्तान के विभाजन से संबंधित कानून की यह स्थिति थी और उसी के अनुसार कश्मीर के शासक के अनुरोध पर कश्मीर को भी भारत में शामिल कर लिया गया, अत: अन्य राज्यों की तरह कश्मीर भी भारत का अंग है तथा पाकिस्तान द्वारा दबाया गया कश्मीर भी भारत को मिलना चाहिए।

शिमला समझौता: कश्मीर समस्या पर निबंध

भारत और पाकिस्तान के बीच जब तीन युद्धों से ही स्थिति नहीं सुलझ पाई तो भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो के बीच शिमला में सन् 1972 में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ जिसके अंतर्गत महत्त्वपूर्ण निर्णय यह लिया गया कि कश्मीर समस्या को भारत और पाकिस्तान आपस में मिलकर ही सुलझाएंगे तथा इस समस्या को न अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया जाएगा, न संयुक्त राष्ट्र में किसी अन्य राष्ट्र को इसके समाधान हेतु शामिल किया जाएगा । पिछले 25 वर्षों में शिमला रामझौते के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान के बीच प्रधानमंत्रियों से लेकर अधिकारी स्तर पर बराबर बातचीत होती रही है। भारत और पाकिस्तान के बीच नागरिकों के आने-जाने तथा व्यापारिक संबंधों को लेकर समस्याएँ सुलझी भी हैं, किंतु पाकिस्तान में भारत विरोध को अपनी आंतरिक राजनीतिक समस्या बनाकर इसे अपने चुनावों में और चुनावों के बाद भी पाकिस्तानी राजनेताओं द्वारा उठाया जाता रहा है। इस प्रकार पाकिस्तान के बहुत-से आम चुनाव स्थानीय नागरिकों के मत प्राप्त करने के उदेश्य से कश्मीर समस्या से जूझते रहे हैं। आज स्थिति यह है कि पाकिस्तान की अपनी राजनीति में और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में वहाँ का कोई भी राजनेता कश्मीर समस्या को उठाने से नहीं चूकता पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने 1998 में एवं उसके बाद वहाँ के पूर्व राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में भी इस मसले को उठाया है।

कश्मीर समस्या के विविध पक्ष:

कश्मीर की समस्या के मुख्य रूप से तीन पक्ष हैं, एक भारतीय पक्ष, दूसरा पाकिस्तानी और तीसरा अंतरराष्ट्रीय। भारत के लिए यह एक घरेलू मामला है किंतु पाकिस्तान के लिए यह घरेलू राजनीति का विषय होने के साथ-साथ इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने का प्रयास करने के कारण यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति का भी विषय है। भारत का दावा है कि न केवल भारत के अधीन कश्मीर का भू-भाग भारत का अपना है बल्कि 1947 में पाकिस्तानी सेना के सहयोग से क़बालियों के द्वारा अधिगृहीत 32 हज़ार वर्गमील का क्षेत्र भी उनका अपना ही है जो दरअसल भारत को प्राप्त होना चाहिए। 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच भारतीय क्षेत्र के विभाजित होने के जो विधि संबंधी मानदंड थे उनके अनुसार सारा कश्मीरी क्षेत्र भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए था क्योंकि तत्कालीन कश्मीर के राजा ने भारत में सम्मिलित होने पर सहमति व्यक्त थी। भारत का दूसरा पक्ष यह है कि 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच की जो शिमला समझौता हुआ है उसके अनुसार दोनों देश ही आपस मिल बैठकर इस मसले को सुलझा सकते हैं तो किसी भी देश द्वारा इसको अंतरराष्ट्रीय विवाद के रूप में जाना चाहिए। भारत का इस समस्या के संबंध में तीसरा पक्ष यह भी है कि इसे भारत के संविधान में धारा 370 के अंतर्गत जो एक विशेष प्रदेश का दर्जा दिया गया है उसे अब बदला जाए तथा इसे अन्य प्रदेशों की तरह ही भारत संघ का पूर्ण सम्बद्ध प्रदेश बना लिया जाए। धारा 370 को हटाने के संबंध में भी भारत के राजनीतिक दलों में विवाद है।

कश्मीर की समस्या पाकिस्तान के लिए घरेलू है क्योंकि वहाँ के प्रमुख विपक्षी दल तथा अन्य मुस्लिम एवं कट्टरपंथी राजनीति एवं गैर-राजनीतिक संगठन भारत के पक्ष को लेकर भारत-विरोधी एवं हिंदू-विरोधी राजनीति को हवा देते रहते हैं तथा उसके आधार पर वोट प्राप्त करने की राजनीति करते हैं। इस प्रकार वहाँ की संसद में, समाचार-पत्रों में एवं राजनीतिक तथा धार्मिक सभाओं में प्राय: यह मुद्दा उठता ही रहता है। पाकिस्तान का नेतृत्व अपने देश की अन्य आधारभूत सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जनता का ध्यान हटाकर कश्मीर समस्या की ओर ध्यान खींचते हुए, वे इस समस्या को हरा ही बनाए रखना चाहते हैं । वहाँ के राजनीतिक दलों पर बराबर यह दबाव रहता है कि वे कश्मीर समस्या को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितना उठा सकते हैं।

पाकिस्तान के लिए कश्मीर एक अंतरराष्ट्रीय राजनीति करने का भी माध्यम है क्योंकि वे साम्राज्यवादी शक्तियाँ जो दक्षिण एशिया को अविकसित रखकर उसका दोहन करते रहना चाहती हैं तथा भारत और पाकिस्तान को मित्र राष्ट्र के रूप में देखना ही नहीं चाहतीं, वे सुलगती हुई कश्मीर समस्या में गूंक देकर दोनों देशों को लड़ाए रखना चाहती हैं। विगत में तीन युद्धों में पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय सहयोग मिलता रहा है तथा पाकिस्तान बहुत से हथियार विकसित देशों से खरीदता रहा है। इस प्रकार पाकिस्तान कुछ विकसित देशों का मोहरा बनकर कश्मीर समस्या के माध्यम से उनका एवं विश्व के अन्य देशों का ध्यान आकृष्ट करता रहता है। पाकिस्तान कश्मीर समस्या को हिंदू और मुस्लिम समस्या के रूप में भी प्रस्तुत कर मुस्लिम राष्ट्रओं तथा उनके संघ का भी ध्यान खींचता रहता है तथा मुस्लिमों को भारत के विरोध में एवं अपने पक्ष में करता रहता है। कुछ मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान का सहयोग करते हैं तो कुछ उदारवादी देश तटस्थ रहते हैं या भारत का समर्थन भी करते हैं।

कश्मीर समस्या का तीसरा संबंध अंतरराष्ट्रीय भी है जो भारत और पाकिस्तान को आपस भिड़ाकर इन दोनों देशों को सामरिक सामग्री और अन्य वस्तुओं का निर्यात कर अपने व्यापार को बढ़ाना चाहते हैं अथवा दक्षिण एशिया की राजनीति में चौधराहट करना चाहते हैं। इस प्रकार बहुत से देश कश्मीर समस्या का समाधान चाहते ही नहीं क्योंकि इससे उनके आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की संभावना समाप्त हो जाती है।

भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर पिछली आधी शताब्दी से आपस में उलझे हुए थे बल्कि सामरिक तनाव को बढ़ाते हुए वे विदेशी शक्तियों के युद्ध-व्यापार एवं अन्य राजनीतिक सौदेबाज़ी के भी चंगुल में थे। भारत सरकार पाकिस्तान की शह से पहले तो पंजाब में चलते रहे आतंकवाद से और अब कश्मीर में चल रहे आतंकवाद से परेशान रही है। वाजपेयी सरकार से ही यह स्पष्टता है कि पाकिस्तान भारत का महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है इसलिए उसके साथ पहल करके ही सही, तनाव को समाप्त कर मधुर संबंध बनाने चाहिए। इसलिए पिछले कई वर्षों से दोनों देशों के बीच टूटे पड़े संवाद के सिलसिले को फिर से शुरू किया गया है। इसी प्रक्रिया में भारत-पाकिस्तान की जनता के बीच सहज आवागमन के लिए दिल्ली और लाहौर के बीच बस व्यवस्था प्रारंभ करने की योजना तय हुई और उसमें पहली बस यात्रा से प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी पाकिस्तान गए तथा पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने उनकी आगवानी की। इसके बाद दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के लिए लाहौर में एक समझौता हुआ जिसे ‘लाहौर घोषणापत्र’ नाम दिया गया। 1971 में दोनों देशों के बीच शिमला में हुए शिखर सम्मेलन के बाद यह दूसरा महत्त्वपूर्ण क़दम था।

लाहौर घोषणापत्र में यह तय किया गया कि दोनों देशों की सरकारें सभी मुद्दों को सुलझाने के लिए प्रयास तेज करेंगी। हर तरह के आतंकवाद के मामले में एक-दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय विश्वास का वातावरण बनाने की दिशा में काम करने का संकल्प व्यक्त किया तथा दोनों देशों ने शांति और सुरक्षा को ही अपना सर्वोच्च राष्ट्रीय हित संयुक्त रूप से स्वीकार किया।

कश्मीर में लड़ा गया चौथा युद्ध: करगिल:

लाहौर घोषणापत्र की स्याही सूखी भी नहीं थी कि कश्मीर की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर कर्रागण ज़िले के खन्दकों में बारूद बिछने लगा। पाकिस्तानी सेना ने आतंकवादियों को साथ लेकर कश्मीर की भारतीय सीमा में श्रीनगर-करगिल-लेह राजमार्ग के आसपास की पहाड़ियों में मोर्चा ले लिया तथा आपस में विश्वांस को एक बार फिर बारूद के गोलों से ध्वस्त कर दिया, इस प्रकार ‘शांति’ के स्थान पर भारत पर चौथा कश्मीर ‘युद्ध’ थोप दिया। कहाँ तो सोचा था कि भारत और पाकिस्तान आपसी सहयोग से अपनी-अपनी गरीब जनता के दु:ख-दर्द को कम करने की कोशिश करेंगे तथा विकसितं राष्ट्रों के आर्थिक-राजनीतिक दबावों से अपने आपको मुक्त करेंगे और कहाँ इस अप्रत्याशित युद्ध ने आपसी विश्वास के बीच बारूद की सुरंगें बिछा दीं। इस युद्ध में पाकिस्तान फिर पराजित हुआ। जानमाल की काफी क्षति होने तथा अंतरराष्ट्रीय दबावों के कारण पाकिस्तान की पराजित सेना को भारत की सीमा छोड़नी पड़ी, किंतु करगिल युद्ध को लेकर पाकिस्तान की राजनीति एवं सेना के बीच गहरा मतभेद रहा जिसके परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने सेना के प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को बस्त कर दिया तो मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ़ की सरकार का ही तख़्ता पलट दिया। मुशर्रफ़ के शासनकाल में ही भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला हुआ तथा करीब छह माह तक भारत और पाकिस्तान की सेनाएँ आमने-सामने डटी रहीं, किंतु अब पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ़ द्वारा एक प्रकार से राजनीतिक वैधता प्राप्त कर लेने के बाद वहाँ राजनीतिक संघर्ष का तनाव कम हो गया है इसलिए दक्षेस के इस्लामाबाद सम्मेलन (2004) के बाद भारत-पाक रिश्तों में तनाव शिथिल करने की शुरूआत हुई है तथा कश्मीर के मुद्दे को गौणता प्रदान की गई, मुशर्रफ़ शासन के बाद जरदारी शासन में मुंबई में ताज हमले के बाद भारत-पाक संबंधों में तनाव तो रहा किंतु कश्मीर मुद्दा अपेक्षाकृत शांत रहा तथा भारत और पाकिस्तान के बीच आर्थिक-सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा दिया गया, दोनों देशों के बीच बाड़मेर से रेलगाड़ी पुन: शुरू की गई।

कश्मीर समस्या का समाधान:

कश्मीर समस्या मूलतः विराष्ट्रवाद के ज़हर से जन्मी है। यह दुर्भाग्य है कि भारत और पाकिस्तान का विभाजन होने के बाद भी ये दोनों देश मित्र भाव से नहीं रह सके और बराबर तनाव से ग्रस्त रहे। दरअसल दोनों ही राष्ट्रों के शासकों और दोनों ही देशों की जनता को आपस में भिड़ाकर अंतरराष्ट्रीय शक्तियाँ अपनी राजनीति करती रही हैं अर्थात् इस समस्या को अनेक स्तरों पर उलझाती रही हैं। अब उन शक्तियों के स्वार्थ इस समस्या से अनेक दृष्टियों से जुड़ गए हैं। भारत और पाकिस्तान में पहले से ही सांप्रदायिक समस्याएँ मौजूद हैं। भारत में हिंदू, मुसलमान सिख, ईसाई संप्रदायों में तथा कुछ मसलों पर तो हिंदुओं और मुसलमानों के भी अलग-अलग पंथों में टकराहटें दिखाई देती हैं। इसी तरह पाकिस्तान में शिया-सुन्नी और मूल-मुस्लिम तथा मुहाज़िदों के बीच विवाद जारी है। इन आंतरिक कलहों से दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं राजनीतिक और सामाजिक जीवन में कलह बना रहता है। अत: दोनों देशों को अपनी जनता के विकास के हित में अपने उस काले इतिहास को हटाना होगा जो ब्रिटिश शासकों की चाल से सांप्रदायिक भेदभाव के रूप में खड़ा किया गया था। इसके साथ ही दोनों देशों को उन नवसाम्राज्यवादी शक्तियों को भी समझना होगा जो येन-केन प्रकारेण दोनों देशों को अपनी स्वार्थ सिधि हेतु भड़काती रहती हैं।

दरअसल भारत और पाकिस्तान की आर्थिक सामाजिक समस्याएँ इतनी घनीभूत हैं कि दोनों देशों की राजनीति को आपस में मिल-बैठकर संकल्पित मानस से कश्मीर जैसे मसले को तो सुलझाना ही चाहिए बल्कि दो पड़ोसी विकासशील देशों के बीच आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदान-प्रदान के रिश्ते अधिक प्रगाढ़ करने चाहिए। दोनों देशों की गरीब जनता के लिए यही हितकर है। दक्षिण एशिया में इससे बड़ा कोई सौभाग्य नहीं हो सकता। दोनों देशों द्वारा परमाणु परीक्षण कर लेने के बाद अब टकराहट एवं युद्ध की मानसिकता को लेकर उठने वाला सोच एकदम बंद कर देना चाहिए। दरअसल संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर ही कश्मीर समस्या का समाधान हो सकता है और इसमें भारत और पाकिस्तान के राजनीतिक नेतत्व के साथ-साथ अन्य जन-प्रतिनिधियों, पत्रकारों, बुद्धि जीवियों, कलाकारों एवं गैर-सरकारी जन-संगठनों को इस दिशा में अपनी विशेष भूमिका अदा करने की आवश्यकता है।

और निबंध: कश्मीर समस्या पर निबंध

  1. परमाणु शक्ति और भारत हिंदी निंबध
  2. भारत में आतंकवाद हिंदी निबंध
  3. वैश्विक आतंकवाद
  4. भारत में धर्मनिरपेक्षता
  5. आरक्षण निबंध हिंदी में

नये निबंधों के लिए हमारी APP डाउनलोड करें: Playstore

Share:
Written by lokhindi
Lokhindi is a Hindi website that provides Hindi content to the consumers such as jokes, stories, thought, and educational materials etc. Lokhindi website run by "The Arj Team".