भारतीय समाज पर निबंध – Indian society Hindi Essay
भारतीय समाज पर निबंध
Indian society: tradition and modernization Essay / भारतीय समाज : परंपरा और आधुनिकीकरण पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (भारतीय समाज पर हिंदी निबंध)
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परंपरा और आधुनिकीकरण:
भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले देशों के विकास को लेकर यह सवाल बहुत प्रासंगिक है कि आधुनिक और अत्याधुनिक होते जा रहे इस विश्व में हमारी संस्कृति व सभ्यता की प्राचीन परंपरा की क्या भूमिका रहे । भारतीय समाज में जिस चिंतन एवं जीवन शैली का विकास हुआ वह हमारे इतिहास के विविध पङावों और संदर्भों में संभव हुआ है; किंतु आधुनिक विश्व का संदर्भ भारत के प्राचीन इतिहास से इतना भिन्न है कि सवाल उठता है कि भारत आधुनिकरण की प्रक्रिया में अपनी परंपरा से बिल्कुल पल्ला छुड़ा लेक् या अपनी सांस्कृतिक परंपरा का विकास करते हुए विश्व के आधुनिकरण से अपने समाज को एक भिन्न प्रकार से विकसित करें ।
आधुनिकरण एक सापेक्षिक अवधारणा है । जब-जब समाज में तेजी से परिवर्तन के मोड़ आते हैं तब तक पहले से चली आ रही परंपरा और परिवर्तन की नई दिशा के बीच संघर्ष होता है और तभी आधुनिकरण का सवाल उठ जाता है । किंतु आधुनिक विश्व में परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी अभूतपूर्व है और इतनी तेज भी है कि इतिहास में पहले कभी भी आधुनिकरण जैसा सवाल इस पैनेपन के साथ पैदा ही नहीं हुआ जैसा कि आज हुआ है । फिर यदि परिवर्तन एक समाज की अपनी ही अंत क्रिया के फलरूप हो जैसाकि पश्चिम में हो रहा है, तो वह सुपाच्य होता है; किंतु यदि वह बाहरी समाजों के संपर्कों के फलस्वरूप संभव होता है तो इस परिवर्तन पर सवाल खड़े होते हैं । आज भारतीय समाज ने केवल अपने आंतरिक कारणों से तेजी से बदल रहा है बल्कि अन्य देशों के समाजों के साथ हो रहे तकनीकी, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों के संपर्कों के कारण भी विविध एवं विभिन्न दिशाओं में बदल रहा है । इसलिए पूर्व दो शताब्दियों से भारतीय समाज में परंपरा और आधुनिकीकरण का यह व्यापक प्रश्न विचारणीय रहा है ।
पश्चिम का संपर्क और भारत:
19वी शताब्दी से यूरोप में शुरू हुई आधुनिकता की प्रक्रिया भारत में भी प्रारंभ हुई, क्योंकि हम उस समय यूरोप के सिरमोर राष्ट्र ब्रिटेन से प्रशासित थे । ब्रिटेन एवं अन्य यूरोप के राष्ट्रों से भारत का न केवल राजनीतिक एवं आर्थिक जुड़ाव स्थापित हो गया था; बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं विशेष रूप से शिक्षा की दिशा में भी हम प्रभावित होने लगे थे । इसलिए भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अठारहवीं शताब्दी के अंत से शुरू हो गई थी, जो अनवरत जारी है । अब विश्व एक गांव बनता जा रहा है और विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक गांव के विभिन्न मोहल्लों की तरह रहने लगी हैं । मीडिया के विभिन्न साधनों के द्वारा सूचना का आदान-प्रदान इतना त्वरित एवं व्यापक है कि विश्व की सभी संस्कृतियों एक दूसरे के सात पारदर्शी रूप में खड़ी हैं । परिवहन के समस्त साधनों ने सभी समाजों के लोगों को एक दूसरे के निकट लाने में सहयोग किया है । व्यापक स्तर पर उत्पादन, वितरण एवं उपभोग से विश्व की अर्थव्यवस्था आपस में गुँथ गई हैं ।
उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के कारण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के स्थान पर एक विश्व अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है । वैज्ञानिक एवं तकनीक विकास ने न केवल वैचारिक क्रांति की एक सतत प्रक्रिया शुरू कर दी है बल्कि जीवन-निर्वाह के एक से साधनों ने समस्त संस्कृतियों की जीवन शैलियों में समानता की अनवरत प्रक्रिया प्रभावित की है । इस प्रकार अन्य लोगों की तरह भारतीय समाज भी परिवर्तन की एक विषय नाव में तैयार हो गया है ।
आधुनिकीकरण के विभिन्न क्षेत्र:
यदि भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को हम हमारी परंपरा की दृष्टि से देखें तो मोटे रूप से ज्ञान और विज्ञान, राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था एवं सांस्कृतिक संरचनाओं के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। आधुनिक विश्व में सामाजिक परिवर्तन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हुए क्रांतिकारी विकास ने अदा की है । पारस्परिक अंधविश्वासों ने हजारों वर्षों से स्थापित समाज के मूल्यों, विभिन्न शास्त्रों एवं उनके द्वारा निर्धारित पद्धतियों पर ज्ञान और विज्ञान के नए विकास ने एक साथ अनेक प्रश्न चिन्ह लगा दिए है । अब हर बात को विश्वास के स्थान पर तर्क और परीक्षण की कसौटी पर कसा जाने लगा है ।
वस्तुतः प्राचीन भारतीय शिक्षा और ज्ञान भारतीय इतिहास के एक संदर्भ विशेष में जन्मा था और विकास की लंबी प्रक्रिया में उसमें से काफी कुछ अप्रासंगिक भी हो गया है । अब उसको शंका की दृष्टि से देखा जाता है और उसके स्थान पर आधुनिक प्रयोगशालाओं में किए गए परीक्षणों से उपजा ज्ञान स्थापित किया जाता है । विज्ञान के नए आविष्कारों का सीधा प्रभाव तकनीकी विकास के द्वारा जीवन पर पड़ने लगा है । तकनीकी का प्रभाव व्यक्ति के स्वतंत्र रहन-सहन, परिवहन, संचार एवं व्यक्तिगत एवं सामूहिक जिंदगी के तरीके पर इतना अधिक पङा है कि भारतीय समाज की अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुआ है । सबसे अधिक परिवर्तन तो यह हुआ कि व्यक्ति और समाज की स्थितियों की नियंता कोई ईश्वरी शक्ति न होकर, मनुष्य समय हो गया है । यह सिद्ध होने लगा है कि तकनीकी से सुविचारित एवं सुनियोजित प्रयोग से गरीबी एवं बीमारी जहांँ सैकड़ों वर्षों से स्थापित मनुष्य की कमजोरी एवं भाग्य के रूप में मानी जाती थी अब उसका पूरी तरह से उन्मूलन किया जा सकता है । भारतीय समाज में यह महत्वपूर्ण एहसास अभूतपूर्व है । जिस गति से तकनीकी का प्रसार होता गया उसी गति से समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेज होती गई । आज बीमारियों को दूर करने के लिए अस्पतालों का जाल बिछा है । सभी के लिए विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का प्रसार हुआ है तथा परिवहन, संचार, औद्योगिक उत्पादन आदि के क्षेत्र में जिस तेजी से परिवर्तन आया है इसे भारतीय समाज अपने मध्यकालीन स्वरूप से बहुत भिन्न हो गया है । भारतीय परंपरा के परंपरागत साधन खेती, पशुपालन, उद्योग आदि में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए है तथा एक अनपढ़ किसान ने भी तकनीकी उपयोग से अपनी आस्था व्यक्त कर अपने आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया है ।
भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की दूसरी प्रक्रिया राजनीतिक क्षेत्र में हुई है । राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि, उसको एवं उसकी संतान दर संतान को राजा माननेवाला समाज आज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत जनप्रतिनिधि के रूप में स्वतंत्रत राजनेता चुनना है तथा उसे एक निश्चित अवधि के बाद बदल देता है । आज हमारे आम नागरिक की राजनीतिक स्वतंत्रता किसी राजा की मर्जी पर निर्भर नहीं है; बल्कि भारतीय समाज के हर सदस्य का मौलिक अधिकार और उसके विकास की आधारभूत शक्ति बन गई है । स्वतंत्रता के साथ साथ समानता की अवधारणा ने भी भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया है । पहले एक व्यक्ति की आर्थिक सामाजिक स्थिति ईश्वर और भाग्य की देन मानी जाती थी, किंतु अब वह राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था का परिणाम आने जाती है । अब विश्वास किया जाता है कि इन व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके समानता स्थापित की जा सकती है । मध्यकाल में भारतीय राजनीति में सहभागिता के अनेक स्तर थे तथा आम आदमी की राजनीतिक भागीदारी नहीं के बराबर थी । अब राजनीतिक समानता के आधार पर सामान्य व्यक्ति से लेकर राष्ट्रपति तक सभी को केवल एक ही वोट देने का अधिकार प्राप्त है ।
भारतीय समाज में सबसे अधिक क्रांतिकारी परिवर्तन समाजिक क्षेत्र में हुआ है । यह समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ, इतना अधिक गैर बराबरी लिए हुए था कि कुछ जातियां अन्य के लिए अस्पृश्य समझी जाती थी । ये जातिगत भेद ईश्वर प्रदत समझे जाते थे किंतु समाजिक क्षेत्र में समता आधारित नई चेतना पैदा हुई उसके फलस्वरूप भारत के पुनर्जागरण काल से ही सामाजिक परिवर्तन की आंँधी आई तथा अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव के विरोध में वातावरण बनने लगा । आज इस दिशा में काफी प्रगति हुई है तथा जातिगत भेदभाव एवं संकीर्णता का समाज पीछे माने जाने लगा है । विश्व की अन्य समाजों के संपर्क से भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा तथा मनुष्य मात्र में समानता एवं गौरव के भावना केंद्रित हुई । पिछड़ी जातियों के विकास को लेकर व्यवस्थित रूप से भारतीय राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण आदि के जरिए विशेष प्रयत्न किए गए है । 1789 ईस्वीं में हुई फ्रांसीसी क्रांति ने जिस स्वतंत्रता का भ्रातृत्व का बिगुल बजाया था, 1848 ईस्वीं में माकर्स ने साम्यवाद का घोषणापत्र प्रकाशित करके दुनियाभर के मजदूरों को एक होने तथा शोषण से मुक्त होने का आह्वान किया था, उन सबका असर भारतीय समाज पर भी पड़ा है । फलस्वरुप भारतीय गणतंत्र का संविधान आधुनिक विश्व के स्वतंत्रता, समानता, समाजवाद के उत्कृष्ट मूल्यों पर रचा गया है और वही आधुनिक भारतीय समाज का मूल्य ग्रंथ है, स्मृति ग्रंथ है ।
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परंपरा, ईश्वर और आधुनिकता:
भारतीय समाज में आधुनिकीकरण एवं परंपरा की टकराहट धर्म एवं संप्रदाय को लेकर भी है । भारत के लोग शुरू से ही ईश्वर में आस्था रखने वाले, बहु ईश्वरवादी एवं उपासना की विविध पद्धतियों में विश्वास करते रहे हैं । इसके बीच सामजस्य भी रहा है तो टकराहट भी । भारत के बाहर से आई हुई उपासना पद्धति-विशेष रूप से इस्लाम, ईसाई पद्धतियों ने भारतीय समाज को आतंकित भी किया है एवं अनुकूल रुप में प्रभावित भी किया है । इस प्रकार आधुनिक युग से पहले तो ईश्वर, धर्म तथा संप्रदाय आदि को लेकर भारतीय समाज काफी कुछ उलझा हुआ था; किंतु भारत के पुनर्जागरण काल के दौरान एक को राजा राममोहन राय विवेकानंद जैसे सांस्कृतिक नेताओं ने समाज के सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का मार्ग बनाकर उसका आधुनिकीकरण किया, दूसरी और पश्चिमी संस्कृति के संपर्क से स्वतंत्रता एवं समानता जैसे मूल्यों ने, धार्मिक स्वतंत्रता एवं विविधता के सोच ने धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि से विकसित किया जो अंतत: आधुनिक भारतीय समाज और राजनीति के नवनिर्माण एवं संविधान का आधार बनी । वस्तुतः भारतीय समाज धर्म की दृष्टि से प्रारंभ से ही उदार विविधतामूलक रहा है । मध्यकाल के अपने ऐतिहासिक कारणों से जो वह संकीर्ण बना भी दिया गया था वह अपनी प्राचीन समन्वयकारी परंपरा के अनुरूप अब अधिक उदार एवं खुला बन रहा है । भारतीय समाज 1947 के धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों के रूप में विकसित होकर भी अपनी प्राचीन परम्परा एवं तमाम विश्व के आधुनिक जीवन मूल्यों के अनुरूप धर्मनिरपेक्षता को अपनाए हुए है ।
एशियाई देशों का आधुनिकीकरण- गचर्नाड मिर्डल:
एशिया एवं विशेष रूप से भारतीय समाज के विकास की प्रक्रिया के विशेषज्ञ गुर्नाड मिर्डल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द एशियन ड्रामा’ में इस बात को अच्छी तरह से व्यक्त किया है कि दक्षिण एशियाई देशों में आधुनिकीकरण की बात बहुत आवश्यक एवं जटिल है क्योंकि ये समाज परंपराओं से बहुत अधिक जकड़े हुए हैं । मिर्डल के अनुसार इन समाजों में आज वैज्ञानिक दृष्टि को विकसित करने से ही सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर कर उन्नति की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है । उनका यह भी कहना है कि भारत और दक्षिण एशियाई देशों के आर्थिक विकास का नमूना पश्चिम देशों की नकल पर आधारित नहीं हो सकता, बल्कि लोगों के रहन-सहन एवं चिंतन में वांछनीय परिवर्तन लाने के प्रयासों से ही हो सकता है ।
आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण: भारतीय समाज
दरअसल भारतीय समाज के संदर्भ में आधुनिकीकरण को पश्चिमीकरण नहीं समझना चाहिए; बल्कि सूक्ष्मता से विचार करने पर अनेक स्थानों पर वह दोनों एक दूसरे के विरोध में भी खड़े दिखाई देते है । पश्चिमीकरण की प्रवृत्ति से उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिलता है तथा लोगों में रहन-सहन और वेशभूषा के नए से नए तरीके अपनाने की सनक पैदा होती है । पश्चिम में जिस तरह से पूंँजीवादी व्यवस्था विकसित हुई है उसको अपनाने से भारतीय समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है । इस तरह शोषण एवं अपराध के बढ़ने की स्थिति भी तैयार हुई है । भारतीय समाज में पूर्व से स्थापित सहयोग एवं सहिष्णुता का वातावरण नष्ट हुआ है, व्यक्तित्व एवं वैयक्तिक स्वार्थ हावी होते गए हैं । सामाजिकता की रीड संयुक्त परिवार प्रथा समाप्त हुई है तथा ग्रामीण समाज में स्थापित सहकारिता आधारित आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था लगभग नष्ट हो चुकी है । इन सबका असर भारतीय समाज के सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों पर पड़ा है । यह सब कुछ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को भारतीय समाज से निरपेक्ष होकर अपनाने का दुष्परिणाम है । आधुनिकीकरण का आशय पश्चिम के आधुनिकीकरण का अनुकरण करना नहीं है । आधुनिकीकरण का अर्थ है एक समाज अपनी सांस्कृतिक परंपरा एवं धार्मिक सामाजिक संरचनाओं में इस प्रकार परिवर्तन करें कि उस समाज के हर व्यक्ति का लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के अनुसार विकास हो क्योंकि भारतीय समाज की परंपरा तथा इसके भौतिक एवं मानवीय संसाधन अन्य देशों से विशेष रूप से पश्चिमी देशों से भिन्न है इसलिए भारतीय समाज का आधुनिकीकरण भी भिन्न तरह का होना चाहिए । भारतीय समाज को स्वतंत्रता एवं समता आधारित लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया को तो गंभीरता से लेना चाहिए, किंतु कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, जनसंख्या की बहुलता, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता आदि को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को विकसित करना चाहिए जिसमें सहकार हो, गैर-बराबरी हो, राजनीतिक एवं धार्मिक स्वतंत्रता हो, जातिगत एवं संप्रदायगत निरपेक्षता हो ।
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भूमंडलीकरण और आधुनिकीकरण:
भूमंडलीकरण एवं अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के नाम पर जिस तरह के भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ी है और जुड़ती जा रही है, उसमें अकुशल श्रमिक वर्ग की बेरोजगारी एवं आर्थिक विषमता के तेजी से बढ़ने की आशंका है । हमें बहुत सजग होकर, भारतीय आवश्यकताओं एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को देखते हुए, पश्चिम की आधुनिक तकनीक को अपनाना चाहिए । यदि हमने पश्चिम का अंधानुकरण किया, जैसाकि हम अब तक करते चले आ रहे हैं तो आधुनिकीकरण के नाम पर हम भारतीय समाज को बेरोजगारी और विषमता के गर्त में ही पड़ा देखेंगे । उससे एक संतुलित समाज का विकास नहीं हो सकेगा । अंतः हमें आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के परिपेक्ष्य में अवश्य देखना चाहिए । वस्तुतः भूमंडलीकरण के नाम पर पश्चिम अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का जो धावा हुआ है, भारत जैसे विकासशील एवं पारंपरिक देशों को अपनी परंपरा का वस्तुगत मूल्यांकन करते हुए, उसमें से प्रगतिशील तत्वों को आधुनिक विकास-दृष्टि के साथ संयोजित कर विकास का अपना मार्ग बनाना चाहिए । आधुनिकरण का आशय पश्चिमीकरण नहीं है और अंधानुकरण तो हर्गिज़ नहीं किंतु सूचना क्रांति के प्रवाह के इस अभूतपूर्व दौर में हमें विदेशी, संस्कृतियों के उत्कृष्ट मणि-रत्नों को भी बटोरना चाहिए और संस्कृति के नाम पर प्रदूषित कचरे से बचना चाहिए । हमें बाजारवाद के नाम पर उभरे ‘भूमंडलीकरण’ को नहीं, वासुदेव कुटुंबकम्’ को अपनाना चाहिए, ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ के सिद्धांत पर सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह एवं ट्रस्टीशिप की अवधारणा एवं व्यवहार को विकसित करना चाहिए ।
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