भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay – निबंध हिंदी में

Hindi Essay – भारतीय लोकतंत्र

Indian Democracy: Smelly Face / भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay : बदहवास चेहरा | भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियां व विशेषताएं पर हिंदी निबंध |


आधार बिंदु :

  1. भारतीय लोकतंत्र : एक कठिन प्रयोग
  2. भारत का प्राचीन शासन : धर्म-शासन
  3. इस्लामी एवं ब्रिटिश काल में धर्म-शासन की समाप्ति
  4. स्वांतत्र्योत्तर भारत : समन्वित तंत्र का विकास
  5. रुँधा हुआ भारतीय लोकतंत्र
  6. जनसहभागिता और लोकतंत्र
  7. न्यायपालिका की सीमाएं
  8. जन-सहभागिता बढ़ाने के अलावा अन्य विकल्प नहीं

भारतीय लोकतंत्र : एक कठिन प्रयोग : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

मध्यकालीन राजतंत्रों के स्थान पर आधुनिक विश्व में राजनीतिक क्रांति के रूप में लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसमें भारत का एक विशेष स्थान है। नागरिकों की संख्या की दृष्टि से भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है बल्कि हज़ारों वर्षों की राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली, सैकड़ों वर्षों के साम्राज्यवादी उपनिवेशी शासन से मुक्ति के बाद तथा संस्कृति, धर्मभाषा आदि की विविधताओं के बावजूद हमारा यह देश पिछली आधी शताब्दी से निर्बाध लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली का एक सफल एवं सार्थक प्रयोग है।

भारतीय लोकतंत्र व्यक्ति की आज़ादी एवं विकास के सार्वजनिक ढाँचे के मिश्रण का भी एक अभिनव प्रयोग है। एशिया के पड़ोसी देशों की अधिनायकवादी उठापटक के बावजूद भारत में लोकतंत्र अविचल है किंतु इसकी यह अविचलता जाति, संप्रदाय, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और राजनीतिक मूल्यहीनता एवं अपराध से बराबर विचलित हो रही है। इसलिए क्रमश: नष्ट-भ्रष्ट होते जा रहे तंत्र के परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र का अध्ययन अपने-आप में महत्वपूर्ण है।

भारत का प्राचीन शासन : धर्म-शासन : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

भारत में वैदिक काल से ही लोकतंत्र एव ग्राम शासन व्यवस्था के सूत्र मिलते हैं। उस व्यवस्था में राजा और राजतंत्र को स्वेच्छा से कानून बनाने का अधिकार नहीं था। उसे केवल धर्म के अनुसार शासन चलाने का अधिकार था। वह अधिकार कम और कर्तव्य अधिक था।

‘श्री अरविंद ने भारतीय संस्कृति के बारे में लिखा है कि भारत में यद्यपि राजा को दैवी शक्ति का प्रतिनिधि और धर्म का संरक्षक मानते हुए उसके राजनीतिक पद और व्यक्तित्व को एक विशेस प्रकार की पवित्रता तथा संप्रभुता से संपन्न समझा जाता था तथापि मुसलमानों के आक्रमण से पहले भारतीय राजतंत्र किसी भी एक व्यक्ति का स्वेच्छाचारी शासन अथवा निरंकुश तानाशाह नहीं था। दरअसल भारतीय सामाजिक व्यवस्था में राजा से बड़ा तो धार्मिक, नैतिक, सामाजिक,राजनीतिक, न्यायिक विधान होता था, जो लोगों के जीवन को परिचालित करता था, इस प्रकार शासन का प्राणतत्व धर्म तो (मूल्य) समझा जाता था। उस धर्मानुशासन को राजा भी प्रभावित नहीं कर सकता था। धर्म के व्याख्याकार ब्राह्मण थे किंतु वे भी धर्म को परिवर्तित नहीं कर सकते थे। राजा धर्म का रक्षक, परिचालक और सेवक होता था। उसका दायित्व था कि वह जनता से धर्म का पालन करवाए और धर्म के विरुद्ध हर प्रकार के उच्चूंखलता, उल्लंघन एवं अपराध को रोके। इस प्रकार भारतीय राजनीतिक परंपरा में राजतंत्र होने के बावजूद राजा का शासन न होकर धर्म का शासन होता था।

इस्लामी एवं ब्रिटिश काल में धर्म-शासन की समाप्ति : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

मुसलमानों के आक्रमण और उसके बाद ब्रिटेन के आधिपत्य के बाद भारतीय शासन-प्रणाली का स्वरूप बदल गया तथा शासन का केंद्र धर्म के स्थान पर शासक हो गया। यद्यपि मुसलमानों के शासनकाल में ही शासक की स्वेच्छाधारिता अधिक हो चली थी तथा ब्रिटिश शासनकाल में तो शासन ब्रिटेन की संसद के द्वारा परिचालित होता था, किंतु मुसलमानों के शासन के समय से ही बादशाह के अंतर्गत जो छोटे-छोटे राजतंत्र स्थापित हुए वें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत भी चलते रहे। उनमें धर्म के शासन की बात समाप्त हो गई तथा बादशाह एवं ब्रिटेन की संसद के प्रति निष्ठा प्रमुख हो गई।अब भारतीय राजतंत्र धर्म एवं भारतीय जनता के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहे। इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र का मूल्य आधारित पारंपरिक स्वरूप समाप्त हो गया।

स्वांतत्र्योत्तर भारत : समन्वित तंत्र का विकास : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

भारत 17 वीं शताब्दी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की गिरफ्त में आया किंतु निरंकुश शासन प्रणाली के बावजूद ब्रिटेन की लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली से हमारा संपर्क भी निरंतर बढ़ता गया। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य न केवल साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त करना था. बल्कि इस्लामी एवं ब्रिटिश शासनकाल के दौरान निरंकुश राजतंत्रात्मक उभरे शासन व्यवस्था से मुक्ति भी प्राप्त करनी थी। दरअसल 1947 में हमें एक ओर साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली तो दूसरी ओर देशी राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था से भी। आज़ादी के बाद हम लोकतंत्रात्मक शासन के अनुकूल शासन व्यवस्था को अपनाने में सफल हए । प्राचीनकाल में यदि हमारी शासन व्यवस्था का केंद्र धर्म था तो आज़ादी के बाद भारत की संविधान सभा के द्वारा निर्मित संविधान हो गया, अर्थात् विधान का शासन | दरअसल अब भारतीय लोकतंत्र, भारतीय परंपरा में व्यक्ति के लिए निर्धारित लक्ष्य मुक्ति, स्वशासन, धर्म, नीति, मूल्य तथा पश्चिम में फ्रांसीसी राष्ट्रक्रांति उभरे स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातृत्व के राजनीतिक मूल्यों का समन्वय है। इसलिए भारतीय लोकतंत्र प्राचीन राजनीतिक परंपरा और आधुनिक वैश्विक राजनीति का समन्वय है।

लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली एक शासन करने भर तरीक़ा नहीं बल्कि वह आम जनता का जीवन-दर्शन एवं जीवन-शैली होती है। हेराल्ड लास्की ने कहा है कि ‘सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र मृगमरीचिका है।’ मध्ययुगीन शासन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक असमानता एवं शक्ति-संपन्न की स्वेच्छाचारिता पर आधारित हो गया था तथा विदेशी शासकों ने राजनीतिक शोषण एवं भेदभाव को इतना गहरा कर दिया था। कि भारतीय जनता में लोकतंत्र के संस्कार धूमिल हो गए। भारतीय पुनर्जागरण के दौरान भारतीय राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों के नेताओं के प्रबल पुनरुत्थानवादी कार्यक्रमों के फलस्वरूप प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था से परिचित होने तथा उसको आधुनिक स्वरूप प्रदान करने के प्रयासों के फलस्वरूप एक नया वातावरण बनाने का क्रांतिकारी कार्य हुआ। इसी के फलस्वरूप यदि सामाजिक क्षेत्र में छुआछूत, वर्णभेद को हटाने तथा जातीय आधार पर आरक्षण आदि के प्रावधान के कारण सामाजिक समता स्थापित करने का प्रयत्न हुआ तो भूदान, सर्वोदय, ट्रस्टीशिप आदि के आधार पर आर्थिक समता लाने की चेतना फैलाई गई और राजनीतिक क्षेत्र में सबको समान राजनीतिक अधिकार देने, मूल अधिकार प्रदान करने, संविधान को सर्वोच्च रूप में स्थापित करने तथा जनता को गाँव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार देने के कार्य हुए । ये सब कार्य लोकतंत्र की जड़ों को सींचने तथा विश्व में लोकतंत्र की चल रही अधुनातन हवाओं को भारतीय राजनीतिक जीवन में प्रवाहित करने के महत्वपूर्ण प्रयास रहे हैं। भारतीय नेताओं ने संसदीय शासन प्रणाली अपनाकर विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं प्रेस को स्वतंत्र अधिकार देकर भारतीय लोकतंत्र के ढाँचे को मजबूती प्रदान करने की कोशिश की है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान लोकतत्रात्मक जीवन व्यवस्था एवं शासन व्यवस्था के लिए चलाए गए संघर्ष के फलस्वरूप ही आज़ादी के बाद अब तक हम लोकतंत्र की निर्बाध यात्रा कर सके हैं ।

भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay Full

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रुँधा हुआ भारतीय लोकतंत्र : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली सामाजिक एवं आर्थिक समता तथा राजनीतिक स्वतंत्रता एवं न्याय पर निर्भर करती है किंतु भारतीय समाज में अभी भी शिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी तथा औपनिवेशिक संस्कारों के कारण आम जनता में लोकतंत्र का जीवन-दर्शन तथा जीवनशैली मजबूत नहीं है। इसलिए भारतीय लोकतंत्र अभी भी लंगड़ाता-लड़खड़ाता चल रहा है। अभी भी ग़रीबी की रेखा से नीचे लगभग 26 प्रतिशत लोग दयनीय स्थिति में जी रहे हैं। जातिगत एवं संप्रदायगत वैमनस्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों से लोकतंत्र धू-धू जला है। जातिगत आरक्षण को उचित तरीके से लागू न करने के कारण जातिगत वैमनस्य एवं जातिगत राजनीति का घटियापन बढ़ता जा रहा है। भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक समान नागरिक संहिता लागू करने का विरोध बढ़ता जा रहा है । पर अभी भी वंशवाद, व्यक्तिवाद और जन-प्रतिनिधि हावी हैं। चुनाव पूंजीपतियों और अपराधियों का खेल बन गया है, शोषण और भ्रष्टाचार व्यापकतर होता जा रहा है, वस्तुतः अपराधियों का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण क्रमश: बढ़ता जा रहा है। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र का भविष्य रुँधा हुआ है। भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

लोकतंत्र की जड़े आत्मानुशासन एवं विधि के शासन में होती हैं, किंतु आज जो व्यक्ति जितना समर्थ है वह उतना ही उच्छंखलता और क़ानून के उल्लंघन से शासन-तंत्र को नकार कर रहा है। राजनेता, अधिकारी तथा आम सरकारी कर्मचारी अपने अधिकारों के दुरुपयोग से अथवा अपनी अकर्मण्यता से शासन-व्यवस्था को नष्ट कर रहे हैं। हमारे सांसद तथा विधायक सदनों के अंदर एवं सदनों के बाहर संसदीय शालीनता की एक-पर-एक मर्यादाएँ तोड़ रहे हैं। वहाँ गाली-गलौज तथा मारपीट के दृश्य देखे जा सकते हैं । विगत में महाराष्ट्र, उत्तर-प्रदेश, आंध्रप्रदेश तथा गुजरात की विधासनभाओं में जो हिंसात्मक व्यवहार हुआ, वह क़ानून के हनन की पराकाष्ठा है । विभिन्न प्रदेशों के राज्यपालों द्वारा विधानसभाओं को भंग करने के जो निर्णय लिए गए वे अधिकारों के दुरुपयोग के स्पष्ट उदाहरण हैं | राजनेताओं एवं सरकारीअफ़सरों द्वारा 2जी स्पेक्ट्रम,राष्ट्रमंडलीय खेल हवाला कांड, यूरिया, शक्कर, टेलीफ़ोन पशुचारा, आवास एवं पेट्रोलपंप आवंटन आदि में खुले रूप में भ्रष्टाचार किया गया है। जाति एवं पैसे के आधार पर जनप्रतिनिधियों को खड़ा करना, चुनाव में पैसा, शराब, हथियार, आतंक का दुरुपयोग कर मत प्राप्त करना, किसी को मत न डालने देना, मत पेटियाँ छीनना, मतदान करना लोकतंत्र की जड़ों में हीमट्ठा डालना है। न्यायपालिका के निरंतर भ्रष्ट होते जाने से लोकतंत्र की शुष्धि का रास्ता भी कुंद होता जा रहा है। लोकतंत्र के इसी ढाँचे के आधार पर कर्मचारियों, मज़दूरों, किसानों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, वकीलों, पत्रकारों आदि के संगठन हैं। किंतु वे भी अब अकर्मण्यता स्वेच्छाचारिता, भ्रष्टाचार और अधिकाधिक वेतन सुविधाएँ, बटोरने तथा राजनीतिक दलों की पक्ष धरता के मच बन चुके हैं; जनहित में कार्य-संस्कृति विकसित करने के दायित्व से बेखबर । आज आम जनता की कठिनाइयों को दूर करने के स्थान पर सरकारी तंत्र द्वारा व्यापक रूप से जो भ्रष्टाचार अपनायाजा रहा, यह सब लोकतंत्र की असफलता को ही प्रकट कर रहा है |

जनसहभागिता और लोकतंत्र : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

क़ानून पारित करने, सरकारी तंत्र को स्थापित करने से ही नहीं बनता बल्कि हर स्तर पर लोकतंत्र अर्थात् क़ानून बनाने से लेकर उसके पालन कराने तथा उसकी व्याख्या करने में आम जनता की जितनी सक्रिय सहभागिता होगी लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा । यदि जनप्रतिनिधि चुनकर आम जनता क़ानून बनाने से अपने-आपको अलग कर लेगी और निश्चित हो जाएगी अथवा मंत्रिपरिषद और नौकरशाही को क़ानून के क्रियान्वयन करने का दायित्व सौंपकर जनता अपने-आपको दायित्व से मुक्त कर लेगी तो फिर विधि की क्रियान्विति नहीं हो सकती | दरअसल लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि लोक के शासक नहीं बल्कि उसके अभिमत को प्रकट करने के लिए उसके वाहक के रूप में होते हैं। यदेिं जनप्रतिनिधियों पर हर स्तर पर जनमत का दबाव नहीं रहेगा तो जो-कुछ अधिकार जनप्रतिनिधियों को प्राप्त होते हैं वे उनको लेकर निरंकुश होंगे ही होंगे । वस्तुत: लोकतंत्र लोक से बनता है, नेताओं से नहीं।

लोकतंत्र की मजबूती आम जनता में लोकतंत्र के मूल्यों को लेकर जीवन-दर्शन का विकास करने, घर-परिवार से लेकर संसद तक तथा राजनीति से लेकर आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था तक एक सहभागी कार्य-संस्कृति को विकसित करने से होती है। भारतीय समाज में व्यक्तिकेन्द्रितता का, सामंतवादी व्यक्तिप्रभुता का प्रभाव इस कदर छाया हुआ है कि एक परिवार में भी निर्णय लेने में सहभागिता नहीं रह गई है। परिवार में स्त्री-पुरुष एवं बच्चों को निर्णय लेने में भागीदार बनने के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। इसी प्रकार ग्राम स्तर पर पंचायतों में महिलाओं एवं वंचित वर्ग की सहभागिता बढ़ाए जाने के बावजूद पंचायतों की कार्य-प्रणाली में भी कुछ ही लोगों का वर्चस्व रहता है। वहाँ भी गाँव की आम जनता के मत को विकसित करने अथवा उसको तरजीह देने का कार्य नहीं किया जाता। फलस्वरूप पंचायतीराज व्यवस्था के बावजूद आम जनता की भागीदारी वहाँ भी नहीं पनप सकी है। इसी प्रकार आज़ादी से पूर्व नौकरशाही जिस प्रकार जनता की शोषक थी, आज भी वही स्थिति है। वह मनमाना वेतन लेने अपने दायित्वों का पालन नहीं करने तथा रिश्वत लेने आदि को लेकर पहले से अधिक निरंकुश है। इसलिए नौकरशाही के भ्रष्ट आचरण ने भारतीय लोकतंत्र को खोखला कर दिया है।

न्यायपालिका की सीमाएँ : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

लोकतंत्र को मजबूत करने का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका होती है। यद्यपि भारतीय संविधान के अंतर्गत न्यायपालिका को विधायिका एवं कार्यपालिका से अलग स्थान प्राप्त है तथा वह विधान की व्याख्या करने में सक्षम भी बनाई गई है, किंतु खर्चीली, विलंबित एवं भ्रष्ट न्याय-व्यवस्था ने आम जनता को न्यायालय से अलग कर दिया है। अब न्यायालयों में न्याय प्राप्त करने को कम और न्याय को विलंबित करने के लिए अधिक शरण ली जाती है। भारतीय न्यायालयों में करोड़ों विवादों का वर्षों से बिना निपटाए लटके रहना भारतीय न्यायशीलता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यद्यपि भारतीय न्यायपालिका ने विधायिका एवं कार्यपालिका के बहुत से विवादास्पद मसलों, उसकी अकर्मण्यता एवं भ्रष्टाचारिता पर प्रश्न उठाकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया है, किंतु सर्व साधारण को न्याय प्रदान करने के अपने आधारभूत दायित्व को पूरा करने में तो वह असफल ही रही है। You Read This भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay on Lokhindi.com

जन-सहभागिता बढ़ाने के अलावा अन्य विकल्प नहीं : भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान ढाँचे को देखकर लगता है कि भारतीय लोकतंत्र ढहता जा रहा है। उसकी मरम्मत के जो थोड़े-बहुत प्रयास किये जाते हैं वे उसके टूटने की गति के मुक़ाबले बहुत कम हैं। दरअसल हमने लोकतंत्र के ढाँचे में सामंतवादी एवं पूंजीवादी राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को स्थापित कर दिया है। जिनके पास आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था है वे ही इस ढाँचे के मालिक बने हुए हैं, उन्हें आम जनता चुनावों द्वारा बदलते-बदलते भी थक गई है । एक राजनीतिक दल के स्थान पर दूसरे राजनीतिक दल को लाने से भी उसे कोई लाभ नजर नही आता | कमोबेश सभी राजनीतिक दलों में सामंतवाद, पूंजीवाद के कीटाणु व्याप्त हैं। अतः पिछले 20 वर्षों में लगातार केंद्र स्तर पर एवं राज्य स्तर पर सरकारें बदलने के बावजूद लोकतंत्र के स्वरूप में कोई सुधार नहीं हुआ है। लोकतंत्र की मजबूती का रहस्य आम जनता की जागरूकता एवं सहभागिता ही है। इस जागरूकता एवं सहभागिता को बढ़ाने का काम लोकतंत्र में राजनीतिक दल किया करते हैं। वे अपना राजनीतिक काडर मजबूत करते हैं। तथा जनता तक अपनी राजनीतिक विचारधारा को फैलाने का काम करते हैं, किंतु भारतीय राजनीतिक दलों ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने चुनावों के समय मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक पहुँचाने का काम किया और वोट प्राप्त करने भर की कोशिश की। भारतीय लोकतंत्र Hindi Essay

राजनीतिक दलों के अलावा यह कार्य विभिन्न प्रभाव समूहों (प्रेशर गुप्स) एवं स्वैच्छिक संगठनों के द्वारा किया जा सकता था, किंतु भारत में ऐसे संगठनों की संख्या बहुत कम है तथा उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में जनजागरण करने का प्रयास बहुत कम किया है। इसलिए जनता मोटे रूप से भ्रष्ट राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित चुनावों पर आधारित राजनीति के चंगुल में ही फंसी रही है। चुनावों के बाद जनप्रतिनिधियों पर बराबर दबाव डालने तथा जनमत के अनुसार कार्य कराने का उपक्रम यहाँ नहीं किया गया, फलस्वरूप देश में लोकतंत्र की संस्कृति का विकास नहीं हो सका। आज आवश्यकता यह है कि हर गली, मोहल्ले, गॉव के स्तर पर लोकतांत्रिक मोर्चा स्थापित हों तथा उनके तहत शासन-व्यवस्था के कार्यों की नियमित रूप से समीक्षा हो, सुझाव दिए जाएँ तथा ग़लत कार्यों का विरोध किया जाए । इसके लिए स्वयं जनता को जनहित में सक्रिय करना होगा। यद्यपि जयप्रकाश नारायण ने 1977 में लोक समितियों के माध्यम से संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था किंतु वह आंदोलन जड़ नहीं जमा सका और जयप्रकाश नारायण के निधन के बाद वह अभियान वहीं समाप्त हो गया । यह आवश्यक नहीं है। कि संपूर्ण क्रांति के उसी ढाँचे को फिर से उठाया जाए किंतु स्थान-स्थान पर स्थायी एवं नियमित रूप से लोगों के उठने-बैठने, आपस में विचारविमर्श करने तथा शासन-प्रणाली पर नज़र रखने की अत्यंत आवश्यकता है। जब तक यह नहीं होगा और भारतीय जनता अपने लोकतंत्र संबंधी दायित्वों को नहीं समझेगी, शासन की प्रक्रिया में मिलजुलकर सगभागिता की। प्रक्रिया नहीं अपनाएगी तब तक भारतीय लोकतंत्र का खोखलापन जारी रहेगा तथा यह लोक का तंत्र न होकरपूंजी और शारीरिक बल के संचालकों का ही लोक-शोषक तंत्र बना रहेगा।

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Written by lokhindi
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