
भारतीय समाज में जाति निबंध – Caste in Indian society Essay
भारतीय समाज में जाति
Caste in Indian Society: Curse and Elimination Essay / भारतीय समाज में जाति : अभिशाप और उन्मूलन पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (भारतीय समाज में जाति पर हिंदी निबंध)

भारतीय समाज में जाति
Contents
जाति : भारतीय समाज की अंतरंगी बुनावट:
भारतीय समाज हज़ारों वर्षों से वर्ण-व्यवस्था एवं उसके विस्तृत रुप-जाति व्यवस्था के द्वारा भी जाना जाता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था जाति के ताने-बाने से गुंँथी हुई है । भारत में रहनेवाले न केवल हिंदू बल्कि मुसलमान व ईसाई भी जातिगत संरचना से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित हुए हैं । यद्यपि जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को लंबे समय तक एक सामाजिक आर्थिक संगठन प्रदान किया है किंतु उसकी जन्मगत जकड़न ने जिस तरह से समाज को विभाजित किया और कमजोर किया वह भारत की गुलामी के इतिहास का एक महत्वपूर्ण लंबा अध्याय है। वर्तमान में भी आरक्षण के मुद्दे को जातिगत राजनीति का रूप देकर समाज में जातिगत भेदभाव फैलाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है । वह जन-विरोधी शक्तियों का नंगा प्रदर्शन है। अत: न केवल भारतीय समाज को बल्कि भारतीय इतिहास को समझने के लिए जाति-व्यवस्था को समझना आवश्यक है।
प्राचीन वर्ण-व्यवस्था का जाति में संक्रमण:
प्राचीन काल में हमारे देश में व्यक्ति के गुण और कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था का निर्धारण किया गया था और उसे सामाजिक विकास के लिए न केवल उपयोगी बल्कि आवश्यक भी समझा गया था। यद्यपि प्राचीन काल में वर्ण का वास्तविक उद्देश्य एवं उसका स्वरूप क्या था, कहना कठिन है; किंतु यह निश्चित है कि व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए वर्ण की कल्पना की गई थी। श्रम एवं कर्तव्य का विभाजन एक समाज के संचालन के लिए आवश्यक होता है और इसी उद्देश्य से वर्णों का भी विभाजन किया गया । श्रम-विभाजन को लक्ष्य करके बनाई गई व्यवस्था का समर्थन आज भी कई विचारकों ने किया है।
समय के बदलाव के साथ-साथ वर्ण व्यवस्था का रूप भी बदला और उसने जाति व्यवस्था की रूप धारण कर लिया। समाज में अलग-अलग आर्थिक क्रियाओं के विकास के साथ-साथ अलग-अलग जातियाँ एवं उपजातियाँ बनती गई। जब जाति का निर्धारण व्यक्ति का गुण एवं कर्म नहीं रह गया बल्कि उसका जन्म निश्चित हो गया तब जाति व्यवस्था ने जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया । इससे न केवल जाति संबंधी कट्टरता आई बल्कि उसमें जातिगत ऊँच-नीच की भावना भी आ गई। वर्तमान में भारतीय समाज लगभग 3000 से अधिक जातियों एवं उप-जातियों में बंटा हुआ है। यह विभाजन इतना संगठित एवं कट्टर है कि खान-पान से लेकर शादी-विवाह तक जाति समूहों में ही आयोजित किए जाते हैं। यद्यपि आधुनिक पुनर्जागरण काल से शुरू हुई नई सामाजिक चेतना ने इस जाति व्यवस्था को शिथिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। फलस्वरूप खान-पान एवं विवाह अब जाति से भी परे होने लगे हैं।
यह भी पढ़े: महिला सशक्तीकरण पर निबंध
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की भूमिका:
भारतीय समाज के अध्येताओं ने जाति प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ बताते हुए कहा है कि जाति प्रथा ने भारतीय समाज को संगठित किया है, विशेषकर मध्यकाल में विदेशियों के अनेक आक्रमणों के बावजूद इस प्रथा ने हिंदू समाज के आर्थिक एवं सामाजिक स्वरूप को बनाए रखा है। जाति व्यवस्था ने यद्यपि इस समाज को अलग-अलग रूपों में बाँटा है किंतु संपूर्ण समाज के बीच आर्थिक कार्यों एवं सामाजिक सामंजस्य को लेकर भी समन्वय बनाए रखा है । एक जाति के लोगों में परस्पर निकटता का बोध एवं सामुदायिक दृढ़ता प्रदान की है। भारतीय जाति व्यवस्था में हर जाति का संपूर्ण व्यवस्था में एक स्तर है जो ऊँच-नीच पर भी आधारित है तथा यह स्तर जन्म पर आधारित होने के कारण स्थिर है। जाति को भाग्यवाद से जोड़ दिया गया है और इसको एक विशिष्ट प्रकार के कर्म से भी संबद्ध कर दिया गया है। एक जाति विशेष का एक कार्य विशेष से जुड़े होने के कारण उसमें औद्योगिक प्रशिक्षण की संभावनाएँ बनी रहती हैं।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था से जकड़ा समाज:
यद्यपि जाति की वजह से भारतीय समाज ने इतिहास के अनेक थपेड़ों से अपने-आपको बचाए रखा है किंतु उससे जो हानियाँ हुई हैं और हो रही हैं वे बहुत अधिक एवं दूरगामी हैं। जाति ने न केवल एक समाज को लम्बे समय तक, सभी रूप से खंडित रखा बल्कि एक जाति और दूसरी जाति में इतना भेद भी स्थापित कर दिया कि छुआछूत जैसी कलंकित रीति भी चल पड़ी। ऊँच-नीच एवं छुआछूत की भावना भारतीय समाज को बराबर विभाजित और कमज़ोर करती रही है । और एक अच्छे विकसित, ज्ञान-संपन्न, कौशल-संपन्न समाज को हज़ारों वर्षों तक बाहर की चंद शक्तियों के द्वारा गुलाम बनाए रखा है । दरअसल इस समाज को जाति-व्यवस्था ने ही एक नहीं होने दिया । इसलिए भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता के बावजूद राष्ट्रीयता की भावना यहाँ विकसित नहीं हो पाई। जातिगत हीनता की भावना से ग्रस्त होकर प्रतिवर्ष हजारों शूद्र हिंदू धर्म को त्यागकर अन्य धर्मों (इस्लाम, ईसाई एवं बौद्ध) में परिवर्तित होते रहे हैं। धर्म-परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने भारतीय समाज को इतना खंडित किया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अंतत: राष्ट्रीयता भी खंडित हुई। जाति व्यवस्था से कमज़ोर एवं विभाजित बने समाज पर विदेशियों द्वारा हमारे ऊपर विजय पाना तो आसान बना ही रहा, साथ ही उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य में छिड़ा हमारा स्वतंत्रता आंदोलन भी इस जाति प्रथा के कारण इतना मजबूत नहीं बन पाया और वह लगभग 100 वर्षों तक लंबा खिंचता रहा।
यह भी पढ़े: भारतीय समाज में नारी निबंध
भारतीय राजनीति और जाति व्यवस्था:
आज़ादी के बाद इस जाति व्यवस्था ने स्वतंत्र भारत के राजनेताओं की रगों में प्रवेश किया और वह वोट प्राप्त करने का जरिया बन गई। आज़ादी के 50 वर्ष बीतने के बाद आज भी सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को जातीय समीकरण आधार खड़ा हैं, वोट माँगते हैं। वोट की राजनीति ने भारतीय संविधान में जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया। इससे इस व्यवस्था का पिछड़ी जातियों के चंद विकसित लोगों ने न केवल दुरुपयोग किया बल्कि सवर्ण और पिछड़ी जातियों के बीच वैमनस्य भी बढ़ाया। मंडल आयोग ने जाति पर आधारित आरक्षण के सवाल को पुनः उजागर किया तो उसके विरोध में चले युवावर्ग के आंदोलन ने भारतीय समाज की युवा मानसिकता को गहराई से विचलित कर दिया । भारतीय समुदाय के विकास का आधार अर्थ होने के साथ-साथ जाति भी रही। इसके फलस्वरूप भारतीय समाज में सामंजस्य बिठाने की जो प्रक्रिया पुनर्जागरण काल से शुरू हुई थी वह स्वातंयोत्तर काल में राजनेताओं के हाथों पड़कर धीमी पड़ गई। सभी राजनीतिक दल जाति के ज़हर को लेकर अपना राजनीतिक कार्य-व्यापार करते हैं तथा समाज को बाँटकर एक -दूसरे के विरुद्ध लड़ाते हैं और उसके विभाजन को पक्का करते रहते हैं। हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराध भी काफ़ी-कुछ जातिगत आधार पर किए जाते हैं। सन् 2003 में जातिगत आरक्षण को वोट देने और लेने का आधार बनाने का प्रयास किया गया है किंतु यह इतिहास के पहिए को उलटा घुमाने का निकृष्ट, मानव-विरोधी, विकास-विमुख प्रयास है।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की उधड़ती पर्ते:
परंपरागत राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था से भिन्न आधुनिक शिक्षा ने, पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव ने, रोज़गार एवं शहरीकरण, बदलती सामाजिक-भौगोलिक व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को बहुत शिथिल किया है। समता एवं स्वतंत्रता आधारित आधुनिक शिक्षा व्यवस्था विकसित हुई है और उसने युवा पीढ़ी को जातिगत कट्टरता से उबारा है। इसलिए जाति को लाँघकर खान-पान एवं शादी-विवाह प्रारंभ हुए हैं। व्यक्ति का अपने पारंपरिक कर्म को छोड़कर अन्य काम करने, शहरों में अनेक जातियों द्वारा मिलजुलकर बसी हुई बस्तियों में रहने, रोज़गार के लिए अपनी जाति के लोगों से परे हटकर दूसरी जाति के लोगों के साथ रहने से जातिगत संकीर्णता में कमी आई है। फ़िल्म, इलेक्ट्रोनिक मीडिया, साहित्य आदि के द्वारा जातिमुक्त व्यक्ति का जो जो स्वरूप सामने आया है उसने युवा पीढ़ी मानस को प्रभावित किया है। भारतीय समाज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया के द्वारा, विशेष रूप से पश्चिमी समाज से जो सम्पर्क हुआ है उसने मनुष्य की जाति-रहित समाज व्यवस्था का स्वरूप भी सामने रखा है। सरकारी स्तर पर भी समाज के पिछड़े वर्गों विशेषकर हरिजनों को विशेष अधिकार आरक्षण द्वारा प्रदान कर उनको समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया गया। सार्वजनिक स्थानों पर खान-पान, उठने-बैठने, शादी-विवाह आदि संबंधों की मान्यताएँ बदली हैं तथा अंतरजातीय विवाह के प्रति उदारता बढ़ने लगी है। यद्यपि लोकतंत्र के नाम पर, जाति के नाम पर वोट बटोरने का राजनीतिक षड्यंत्र जारी है जोकि भारतीय राजनीति के वैचारिक दिवालिएपन को ज़ाहिर करता है किंतु राजनीति द्वारा अपने व्यक्तिगत अथवा दलगत स्वार्थ की पूर्ति में जाति को इस्तेमाल करने की कलई भी काफ़ी मतदाताओं में खुलने लगी है। दरअसल जाति व्यवस्था में पहले जैसी कट्टरता नहीं रही है। जो जाति के नाम पर सभा-सम्मेलन-संगठन हैं, ये जातीय दर्प (गौरव) के मंच नहीं हैं बल्कि वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति के समूह हैं जो अंतत: ढहने को हैं, ढहकर रहेंगे।
यह भी पढ़े: भारतीय समाज पर निबंध
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की भावी दिशाएँ:
जाति व्यवस्था मूलत: एक ख़ास तरह की आर्थिक व्यवस्था से पनपी है। मध्यकाल के एक लंबे दौर के बाद आधुनिक युग में भारतीय अर्थव्यवस्था के ढाँचे में तेजी से परिवर्तन आ रहा है। व्यक्तियों के आर्थिक संबंध बदलने से उनके रहन-सहन, उनके स्तर, शिक्षा का स्तर, परिवेश तथा अन्य उभरते जा रहे मानव संबंधों के कारण व्यक्ति का जाति-संबंधी सोच बदलने लगा है। भारतीय समाज में इसी परिवर्तन के साथ जाति-संबंधी सोच में और शिथिलता आने की संभावना है। ज्यों-ज्यों सामंती सोच से मुक्ति और समता तथा स्वतंत्रता की जड़ें सुदृढ़ होती जाएँगी त्यों-त्यों जाति संबंधी दीवारें ढहती जाएंगी तथा यह देश जाति-रहित समतामूलक सामाजिक व्यवस्था की ओर उन्मुख होता जाएगा किंतु भूमंडलीकरण के इस दौर में भारतीय युवावर्ग जाति व्यवस्था से मुक्त होकर, प्रगतिशील सोच से समन्वित होकर अपने जीवन-लक्ष्यों को तय करेगा, जीवन-संघर्ष को रूप देगा, उतना ही वह विकासशील देशों के शोषण से बचेगा और विकास की दौड़ में आगे रहेगा। भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था से मुक्त होना इक्कीसवीं शताब्दी के लिए एक नए विकासशील मानव को जन्म देना है और नए भारत के लिए-विश्व-शक्ति के रूप में उभार के लिए जाति-व्यवस्था से मुक्ति नितांत आवश्यक है।
नये निबंधों के लिए हमारी APP डाउनलोड करें: Playstore
Leave a Comment