चाणक्य नीति: पंद्रहवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: पंद्रहवां अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का पंद्रहवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: पंद्रहवां अध्याय (Chanakya Neeti Fifteenth Chapter in Hindi)


यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।

तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः ।।

  • जिसका मन प्राणिमात्र पर दया करने से खुश हो जाता है उसे ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति की तथा लम्बी-लम्बी जटाएं धारण करने और शरीरं पर राख का लेप करने की क्या जरूरत है?

एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेतू।

पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा चाऽनृणी भवेत् ।।

  • जो गुरु अपने शिष्यों को अद्वितीय, विनाश रहित ईश्वर की शक्ति का ठीक-ठीक बोध करा देता है, वह ऐसा कोई पदार्थ इस पृथ्वी पर नहीं देखता जिसे शिष्य गुरु के चरणों में अर्पण करके गुरु का ऋण चुका सके। गुरु महान है, उसकी सेवा से आप भी तो महान बन सकते हैं।

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।

उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम् ।।

  • बुरे आदमी व अज्ञानी से बचने के दो उपाय हैं-या तो जूतों से मुख मर्दन करना अथवा दूर से ही उन्हें देखकर अपनी राह बदल लेना।

कुचैलिनं दन्तमलोपसृष्टं बाशिनं निष्ठुरभाषिणं च।

सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ।।

  • गन्दे वस्त्र धारण करने वाले, गंदे दांतों वाले, पेटू, कड़वा बोलने वाले तथा सूर्यास्त के समय सोने वाले को शोभा, स्वास्थ्य, सौन्दर्य और ईश्वर त्याग देते हैं, भले ही वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही क्यों न हों।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च ।

तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः ।।

  • मित्र, स्त्री, सेवक, बन्धुवर-यह सब गरीब इन्सान को त्याग देते हैं। जब वह मनुष्य पुनः धनवान बन जाए तो वही लोग उसके पास भागे आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह धन ही तो इन्सान का सबसे बड़ा दोस्त, मित्र, बन्धु-बांधव है।

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति।

प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति ।।

  • पाप और बुरे कर्मों से कमाया हुआ धन दस वर्षों तक ठहरता है और जैसे ही ग्यारहवां वर्ष चालू हो जाता है तो यह मूल समेत नष्ट हो जाता है।

अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम् ।

अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शङ्करभूषणम् ।।

  • जो लोग समर्थ हैं, धन वाले हैं, उनके किए गलत काम भी ठीक हो जाते हैं। परन्तु जो लोग निर्धन हैं, छोटे हैं, उनके लिए उचित कार्य भी गलत गिने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर दैत्य के लिए अमृत भी मौत का कारण बन जाता है और शिवजी के लिए विष भी अमृत बन जाता है। इसी विष को पीकर वे नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

तळोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन् ।

सा प्राज्ञता यो न करोति पापं दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः ।।

  • भोजन उसे ही कहते हैं जो ब्राह्मणों के भोजन कर लेने के पश्चात् किया जाता है। यानी ब्राह्मणों को खिलाने के पश्चात् जो भी भोजन बच जाए उसे करना चाहिए। प्यार वह है जो दूसरों के साथ किया जाए, अपनों से तो सभी प्यार करते हैं। अक्लमन्दी यह है कि प्राणी पापों से सदा दूर रहे और सच्चा धर्म वही है जिसके द्वारा इन्सान पाप, झूठ और बुरे कर्मों से बचा रहे।

मणिर्तुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।

क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिर्मणिः ।।

  • हीरा चाहे पांव के नीचे लटकता रहे और कांच को सिर पर रख लिया जाए परन्तु जब आप उसे बेचने के लिए जाएंगे तो हीरे की कीमत ही मिलेगी, कांच को कोई नहीं लेगा।

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः अल्पश्च कालो बहुविघ्नता छ।

यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यातू ।।

  • इस संसार में अनगिनत वेदशास्त्र और बहुत सी विद्याएं हैं। परन्तु दूसरी ओर देखें तो समय भी बहुत कम है। इसलिए इन शास्त्रों के अर्थ को ही समझना चाहिए। जैसे हम दूध और पानी के मिश्रण में से केवल दूध को पी लेते हैं, पानी को छोड़ देते हैं।

दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम्।

अनर्चयित्वा यो भुङ्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते ।।

  • दूर से चलकर आने वाले रास्ते की थकान से टूटे हुए लोग यदि बिना स्वार्थ आपके घर चलकर आते हैं तो ऐसे मेहमानों का आपको खुले दिल से आदर-सत्कार करना चाहिए। यदि कोई घर का मालिक ऐसे लोगों को खाना खिलाए बिना स्वयं पहले खा ले तो ऐसे लोगों को पापी एवं चांडाल कहा जाता है।

पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः।

आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ।।

  • जो लोग सारे वेदों और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् भी इन शास्त्रों के ज्ञान को नहीं जानते और न ही आत्मा और परमात्मा को जानते हैं, वे आत्मज्ञान से भी वंचित हैं। उन लोगों का जीवन तो ठीक ऐसा है जैसे रसदार शाक में घूमने वाली कलछी को उसके स्वाद का न तो ज्ञान होता है, न आनन्द ही आता है।

धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे।

तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिस्थाः पतन्त्यधः ।।

  • यह ब्राह्मण रूपी नौका तो धन्य है। संसार रूपी सागर में यह उलटा ही चलती है। यह उलटी क्यों चलती है सुनो, जो इस नाव के नीचे रहते हैं वे सब के सब तो तर जाते हैं, इस सागर से पार हो जाते हैं यानी उनका कल्याण हो जाता है। जो लोग इसके ऊपर बैठते हैं, उनका पतन जाता है। यानी वे इस नौका से नीचे गिर जाते हैं और संसार रूपी सागर में डूब जाते हैं। इसका भावार्थ यह है कि जो लोग ब्राह्मणों के साथ नम्रता से पेश आते हैं, उनकी सेवा करते हैं, वे संसार के बंधनों से मुक्त होकर पार हो जाते हैं। उनका कल्याण हो जाता है और जो लोग ज्ञानरूपी नौका में न चढ़कर पापों की नौका में चढ़ते हैं, जो ब्राह्मणों, ज्ञानियों का सम्मान नहीं करते, उनका कभी कल्याण नहीं होता। वे कभी सुख को प्राप्त नहीं कर सकते।।

अयममृतनिधानं नायकोऽप्यौषधीनां अमृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि चन्द्रः।

भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ।।

  • चन्द्रमा अमृत का भंडार, औषधियों का अधिपति, अमृतमयी शरीर वाला और कान्तियुक्त होने पर भी जब सूर्य के मंडल में जाता है तो उसका सारा प्रकाश समाप्त हो जाता है, उसकी सारी सुन्दरता मिट जाती है। ठीक इसी तरह किसी दूसरे के घर में जाकर सबकी आनशान खत्म हो जाती है।

अलिरयं नलिनीदलमध्यगः कमलिनीमकरन्दमदालसः ।।

विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते ।।

  • भंवरा जब कमलिनी के पत्तों के बीच में था, तब कमलिनी के पराग का रस पान कर उसके मद से अलसाया रहता था, वह उसी से मस्ती में झूमता रहता था। परन्तु अब जब वह परदेस में आ गया है तो करील कटसरैया के रस को भी बहुत बड़ा मानता है, जिनमें न तो रस है। और न ही गन्ध ।
चाणक्य नीति पंद्रहवां अध्याय

चाणक्य नीति पंद्रहवां अध्याय

पीतः क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्लभो येन रोषाद्

आबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी में।

गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्तं

तस्मात्खिन्ना सदाहं द्विजकुलनिलयं नाथ युक्तं त्यजामि ।।

  • लक्ष्मी विष्णु से कहती हैं-अगस्त्य ऋषि ने गुस्से में आकर मेरे पिता सागर को पी डाला। भृगु ने रूठकर मेरे प्रिय पति के वक्षस्थल पर लात मारी, श्रेष्ठ ब्राह्मण बचपन से ही मेरी सौत सरस्वती को मुंह लगा रखते हैं और हर रोज उमापति शिवजी की पूजा करते, मेरे घर कमल के फूलों को उजाड़ते रहते हैं। हे प्रभु, संसार के स्वामी, यही कारण है कि मैं सदा ब्राह्मणों के घरों से दूर रहती हूं।

बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुदृढबन्धनमन्यतू ।

दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रिर्निष्क्रियो भवति पङ्कजकोशे।।

  • इतने बड़े संसार में बहुत से बंधन हैं। परंतु प्रेम का बन्धन कुछ विचित्र ही है। क्योंकि लकड़ी को छेदने की ताकत रखने वाला भंवरा कमल के फूल में बन्द होकर भी निष्क्रिय हो जाता है। वह चाहे तो कमल की इन पंखुड़ियों को काटकर उससे बाहर आ सकता है। क्योंकि उसे कमल के साथ प्यार जो है। वह इस बात से डरता है कि यदि मैंने इन पंखुड़ियों को काटा तो कमल के फूल की सारी सुंदरता नष्ट हो जाएगी। यदि कमल की सुन्दरता मिट गई तो इसके साथ उसका प्रेम भी मिट जाएगा। इसी प्रेम के सहारे तो वह जीवित है।

छिन्नोऽपि चन्दनतर्न जहाति गन्धं

वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् ।

यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः

क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः ।।

  • चन्दन के वृक्ष को यदि काट भी दिया जाए तो वह अपनी गन्ध को नहीं छोड़ता, बूढ़ा होने पर भी हाथी अपनी कामक्रीड़ा को नहीं छोड़ता, ईख को कोल्हू में पेर दिया जाए तो भी वह अपनी मिठास को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार जो अच्छे और उच्च वंश के लोग हैं, धनहीन होने पर भी अपनी सुशीलता को नहीं छोड़ते ।
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Written by lokhindi
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