चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi
चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय
‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का पांचवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय ( Chanakya Neeti Fifth Chapter in Hindi )
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः।
गुरग्निः द्विजातिनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए अग्निहोत्र गुरु के समान पूज्य है। चारों वर्गों के लिए ब्राह्मण पूज्य है। स्त्रियों के लिए उनका पति ही परमेश्वर और गुरु के समान पूज्य है तथा अतिथि सबके लिए ही पूज्य और सम्मान योग्य है।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।।
- जैसे शुद्ध सोने की परख के लिए उसे घिसाया, जलाया और काटा जाता है, ठीक वैसे ही इन्सान की परीक्षा उसके दान-पुण्य, गुणशील और आचरण से ही की जाती है।
तावद् भयेषु भेतव्यं यावद् भयमनागतम् ।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशङ्कया।।
- दु:खों और मुसीबतों से उसी समय तक डरना चाहिए जब तक वे आपसे दूर हैं। परन्तु जब दु:ख आपके सिर पर आ पड़े तब निडर और निश्चिन्त होकर उन पर प्रहार करें। उन पर विजय पाने का एक मात्र रास्ता यही है।
ऐकोदरसमुद्भूताः एकनक्षत्रजातकाः ।
न भवन्ति समाः शीले यथा बदरिकण्टकाः ।।
- एक ही मां-बाप और एक ही नक्षत्र में जन्मे हुए सारे बालकों के गुण कभी भी एक समान नहीं होते। जैसे एक ही पेड़ और एक ही टहना पर पैदा होने वाले कांटे और बेर कभी एक जैसे गुण वाले नहीं होते।
निःस्पृहो ना अधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः ।
ना अविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वञ्चकः ।।
- अधिकारी सदा लोभी होते हैं। श्रृंगार करने वाले कामुक होते हैं। मूर्ख लोग मीठी बोली नहीं बोलते और जो आदमी स्पष्ट व सच कहता है, वह कभी धोखेबाज नहीं होता।
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
वाराऽङ्गनाः कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगाः ।।
- मूर्ख विद्वानों से ईर्ष्यावश बुरा बर्ताव करते हैं। सुस्त और निकम्मे लोग धनवानों से घृणा करते हैं। वेश्याएं अच्छी घरेलू औरतों से घृणा करती हैं और विधवाएं सुहागिनों को देखकर जलती हैं।
आलस्योपगता विद्या परहस्तगताः स्त्रियः।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् ।।
- आलसी लोगों के पास आकर विद्या नष्ट हो जाती है। दूसरों के पास गई नारी नष्ट हो जाती है और सेनापति के बिना सेना बेकार हो जाती है।
अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।
- विद्या पाने के लिए निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है। कुल के यश और गौरव के लिए कर्म और स्वभाव का अच्छा होना जरूरी है। अच्छे पुरुष की पहचान श्रेष्ठ गुणों से होती है और क्रोध का पता आंखों से लग जाता है।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ।।
- धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता और मीठी वाणी से राजा की तथा सती नारी द्वारा घर की रक्षा होती है।
अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा वदतः शांतानु लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।।।
- वेदों के ज्ञानी पण्डित की निंदा करने वाले, शास्त्रों की श्रेष्ठता को व्यर्थ बताने वाले, बुद्धिमान और ज्ञानी पुरुषों को ढोंगी बताने वाले यह सबके सब व्यर्थ ही दु:ख पाते हैं। अर्थात् इन सब वस्तुओं और पुरुषों की निन्दा करने वाले लोगों का न तो कभी भला होता है और न सुख प्राप्त होता है।
दारिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी ।।
- दान देने से दरिद्रता का नाश होता है, सुशीलता से मानव कष्टों से मुक्ति पाता है और ईश्वर भक्ति से सारे डर नष्ट हो जाते हैं।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः।
नास्ति कोपसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानात् परं सुखम् ।।
- काम के समान कोई रोग, मोह के समान कोई शत्रु और क्रोध के समान कोई अग्नि तथा ज्ञान से बढ़कर संसार में कोई सुख नहीं है।
जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ।।
- प्राणी अकेला ही जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसता है, अकेला ही पाप-पुण्य का फल भोगता है। अकेला ही अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है। अकेला ही मोक्ष प्राप्त करता है और माता-पिता, भाई बन्धु-सगे सम्बन्धी उसके दुःख-सुख को बांट नहीं सकते।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् ।
जिताऽक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।
- ब्राह्मण के लिए स्वर्ग, शूरवीर के लिए इन्द्रियों को वश में करना, स्त्री और निर्लोभी के लिए यह संसार तिनके के समान है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मों मित्रं मृतस्य च।।
- विदेश में विद्या इन्सान की सच्ची मित्र होती है। घर में शील गुणों वाली नारी मनुष्य की सच्ची मित्र और साथ देने वाली होती है। रोगी के लिए दवाई सच्ची मित्र होती है और मरने के पश्चात् प्राणी का धर्म ही उसका साथी है।
वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम् ।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च ।।
- समुद्रों में वर्षा, पेट भरे हुए के लिए भोजन कराना, धनवान को दान देना और दिन में दीपक जलाना। यह सब काम व्यर्थ माने गए हैं। इनको करने से कोई लाभ नहीं होता।
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम् ।।
नास्ति चक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम् ।।
- वर्षा के पानी के समान अन्य कोई पानी शुद्ध नहीं होता। आत्मबल के मुकाबले दूसरा कोई बल नहीं। आत्मबल शरीर और इन्द्रियों के बल से बढ़कर बल माना गया है। आंखों की ज्योति से बढकर और कोई ज्योति इस संसार में नहीं तथा अन्न के समान दूसरा और कोई पदार्थ नहीं।
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः ।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः ।।
- निर्धनों को धन की इच्छा रहती है। मनुष्य को सदा स्वर्ग की इच्छा रहती है और देवगण सदा मुक्ति की कामना करते हैं।
सत्येन थार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः ।
सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।
- सत्य की नींव पर यह पृथ्वी टिकी हुई है। सूर्य भी सत्य के प्रताप से तपता है। सत्य के प्रताप से ही वायु चलती है और सच्ची बात तो यह है कि यह पूरा विश्व सत्य के बल पर ही टिका हुआ है।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवित यौवनम् ।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।
- इस चराचर संसार में लक्ष्मी, प्राण, यौवन और जीवन सबके सब नाशवान हैं। केवल एक धर्म ही कभी नाशवान नहीं होता, धर्म ही अमर है, धर्म सच्चा साथी है।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी।।
- मानवों में नाई और पक्षियों में कौआ, चौपायों में गीदड़ और स्त्रियों में मालिन । यह सब बड़े चतुर-चालाक माने जाते हैं।
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च। ।
पत्नीमाता स्वमाता च पंचैता मातरः स्मृता ।।
- राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता व स्वयं की माता । ये पांच माताएं हैं। इन पर कभी भी कुदृष्टि नहीं डालनी चाहिए। ये सम्माननीया हैं।
- यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय
- यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: दूसरा अध्याय
- यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: तीसरा अध्याय
- यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: चौथा अध्याय
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