चाणक्य नीति: सत्रहवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi
चाणक्य नीति: सत्रहवां अध्याय
‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का सत्रहवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: सत्रहवां अध्याय (Chanakya Neeti Seventeenth Chapter in Hindi)
पुस्तकप्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः ।।
- जिसने गुरु के सान्निध्य में नहीं वरन पुस्तकें पढ़-पढ़कर ही ज्ञान प्राप्त किया है, वह व्यक्ति विद्वानों की सभा में वैसे ही तिरस्कृत होता है। जैसे दुराचारिणी स्त्री गर्भधारण करके भी समाज में तिरस्कृत होती है। चाणक्य ने इस श्लोक में गुरु के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए गुरु प्रदत्त ज्ञान को ही श्रेष्ठ बताया है।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ।।
- विज्ञान के एक नियम के अनुसार क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चय ही होती है। चाणक्य भी इस मत का समर्थन करते हुए इसी बात को कहते। हैं कि जो जैसा व्यवहार करे, उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करने में कोई दोष नहीं है। भाव यह है कि जो भला सोचे, उसके प्रति भला ही सोचना चाहिए। इसके विपरीत जो बुरा सोचे उसके प्रति बुरा सोचने में कोई बुराई नहीं है।
यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ।।
- जो वस्तु जितनी अधिक दूर है, उसे उतना ही तप करके प्राप्त करना संभव है। यहां तप का तात्पर्य श्रम से है। इसलिए चाणक्य कहते हैं कि श्रम से कभी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। श्रमशील व्यक्ति असंभव कार्य को भी संभव कर दिखाता है। इसमें संशय नहीं है।
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः।
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।
- व्यक्ति का सबसे बड़ा अवगुण लोभ है, चुगलखोरी सबसे बड़ा पाप है। यदि व्यक्ति सदाचारी हो, सत्य बोलने वाला हो तो उसे किसी भी प्रकार के तप की आवश्यकता नहीं है। अर्थात सत्य बोलना व सदाचारी होना ही सबसे बड़ा तप है। यदि मन पवित्र हो तो तीर्थ स्नान की आवश्यकता नहीं होती। व्यक्ति यशस्वी हो तो उसे अन्य आभूषणों की आवश्यकता नहीं होती। यशस्वी होना ही सबसे बड़ा आभूषण है। इसी तरह यदि व्यक्ति श्रेष्ठ विद्या धन से युक्त हो तो अन्य किसी प्रकार के धन की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन अपकीर्ति व निरादर व्यक्ति के लिए मरण समान है।
पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरा।
शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यान्नाऽदत्तमुपतिष्ठते।।
- शंख और लक्ष्मी दोनों का पिता समुद्र है। लेकिन भिक्षा मांगने वाले साधु शंख को बजा-बजाकर भीख मांगते हैं। शंख चंद्रमा के समान उज्ज्वल भी है। फिर भी यही समझना चाहिए कि शंख ने संभवत: दान आदि नहीं किया। इसलिए साधुओं-भिक्षुकों के हाथों में शोभा पाकर भीख मांगता है। चाणक्य ने इस श्लोक में दान के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यक्ति को दान-पुण्य अवश्य करते रहना चाहिए। दान से यह लोक व परलोक दोनों सुधरते हैं।
अशक्तस्तु भवेत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता ।।
- निर्बल व्यक्ति विवश होता है, इसलिए उसका आचरण भी बदल जाता है। जैसे बलहीन व्यक्ति ब्रह्मचारी बन जाता है, धनाभाव के कारण साधु-संन्यासी बन जाता है, बीमारी होने पर ईश्वर भक्त हो जाता है, ठीक इसी प्रकार बुढ़ापे में स्त्री पतिव्रता बन जाती है। लेकिन सामर्थ्य होने पर या बलवान होने पर यदि व्यक्ति ऐसे आचरण करें तो यह उनका महत्त्वपूर्ण गुण माना जाता है। उदाहरणार्थ यदि स्त्री यौवनमयी व सुन्दर होने पर भी पतिव्रत का पालन करती है तो यह उसकी विशिष्टता है।
नाऽन्नोदकसमं दानं न तिथिदशी समा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम् ।।
- अन्न व जल से बढ़कर कोई दान नहीं है। द्वादशी तिथि से बढ़कर कोई तिथि नहीं है। गायत्री मंत्र से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है तथा माता से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम् ।।
- सपं का विष दांतों में, मक्खी का विष उसके मस्तक में, बिच्छू का विष उसकी पूंछ में होता है। लेकिन दुष्ट व्यक्ति का तो समूचा शरीर ही विष वृक्ष होता है। अर्थात उसके नख-शिख में विष ही विष भरा होता है। इसलिए दुष्ट व्यक्ति का कभी संग नहीं करना चाहिए।
पत्युराज्ञां विना नारी झुपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते पत्युः सा नारी नरकं व्रजेत् ।।
- जो स्त्री पति की अनुमति के बिना व्रत-उपवास करती है तो वह ऐसा करके उसकी आयु का क्षय करती है और स्वयं नरक में जाती है। अर्थात पत्नी का धर्म पति की आज्ञा का पालन करना व पतिव्रत धर्म को निभाना है।
न दानैः शुध्यते नारी नोपवास शतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा ।।
- पत्नी नाना प्रकार के दान, व्रत-उपवास, तीर्थ सेवन करके भी उतनी पवित्र नहीं होती जितनी पति की सेवा करने से होती है।
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन ।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन ।।
- हाथों की शोभा दानादि कर्म करने से है, न कि कंगन आदि आभूषण धारण करने से। इसी प्रकार शरीर शुद्धि स्नान करने से होती है, न कि केवल चंदन लेपने से। मन को संतुष्टि मान-सम्मान से होती है, न कि भरपेट भोजन करने से । कल्याण अर्थात मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से होती है, न कि तिलक लगाने, श्रृंगार करने से। भाव यह है कि व्यक्ति को बाह्याडंबरों से बचकर अंतः शुद्धि के प्रयत्न करने चाहिए।
नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गन्थलेपनम् ।
आत्मरूपं जले पश्यन् शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ।।
- नाई के घर जाकर हजामत बनवाना, पत्थर की मूर्तियों पर चंदन का लेप लगाना, जल में अपना प्रतिबिंब देखना आदि जितने भी कार्य हैं। उनसे व्यक्ति का वैभव नष्ट होता है।
सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा ।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः ।।
- कुंदरू अर्थात तुंडी का सेवन करने से बुद्धि तत्काल नष्ट हो जाती है। वच का सेवन करने से बुद्धि की वृद्धि होती है। स्त्री शक्ति को शीघ्र हर लेती है तथा दुग्धपान से शीघ्र बल प्राप्ति होती है।
परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ।।
- जो व्यक्ति परोपकार की भावना रखता है, उसकी विपदाएं स्वतः नष्ट हो जाती हैं। उसे हर कदम पर सफलता मिलती है। अत: व्यक्ति को परोपकार का भाव अवश्य रखना चाहिए।
यदि रामा यदि च रमा अहितनयो विनयगुणोपेतः ।
यदि तनये तनयोत्पतिः सुखमिन्द्रे किमाधिक्यम् ।।
- जिस व्यक्ति की पत्नी सदाचारिणी हो, धन भी भरपूर हो, पुत्र गुणवान हों, प्रपौत्र भी हों तो उसके लिए यह धरती ही स्वर्ग है। क्योंकि स्वर्ग में भी इससे बढ़कर तो कुछ और हो ही नहीं सकता।
आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
थर्मोहितेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
- आहार, निद्रा, भय, मैथुन (संतानोत्पत्ति की क्रिया) आदि बातें मनुष्यों व पशुओं में एक समान होती हैं। लेकिन धर्म का आचरण व्यक्ति को पशु से अलग करता है। भाव यह है कि यदि व्यक्ति में धर्म-कर्म, नैतिकता न हो तो वह पशु के समान ही है। इसलिए नैतिक गुणों से युक्त व्यक्ति ही बुद्धिमान है।
दानार्थिनो मधुकराः यदि कर्णतालैर
दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्ध्या।
तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा
भृङ्गाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति।।
- चाणक्य का कथन है कि मंदबुद्धि हाथी मदांध होकर अपने मस्तक पर बैठने वाले मदपान के इच्छुक भ्रमरों को कान फड़-फड़ाकर उड़ा देता है। इससे भ्रमरों की कोई हानि नहीं होती। क्योंकि वे तो खिले हुए कमल पुष्पों पर जा बैठेंगे। लेकिन हाथी के गंडस्थलों की शोभा जाती रहेगी। भाव यह है कि यदि याचक भीख मांगने घर के द्वार पर आए और उसे भीख न देकर भगा दिया जाए तो याचक का कुछ नहीं बिगड़ता वरन गृहस्वामी की ही अपकीर्ति होती है। क्योंकि याचक को तो किसी दूसरे घर से भी भीख मिल जाएगी।
राजा वेश्या यमश्चाग्निस्तस्करो बाल याचको।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्राम कण्टकाः ।।
- राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक व ग्रामीणों को दु:ख देने वाले, ग्राम-कंटक दूसरों की पीड़ा को नहीं जानते । इन लोगों से रहम की आशा रखना निरर्थक है।
अधः पश्यसि किं बाले पतितं तव किं भुवि ।
रे रे मूर्ख! न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम् ।।
- एक बुढ़िया की वृद्धावस्था के कारण कमर झुक गई तो वह नीचे देखती जा रही थी। तब एक मनचले युवक ने व्यंग्य करते हुए उससे पूछा कि ऐ बुढ़िया ! तेरा क्या कुछ नीचे गिर गया जो ढूंढ़ती हुई चल रही है। वृद्धा उसकी बात समझ गई और बोली कि ऐ मूर्ख लड़के! तुझे क्या पता कि बुढ़ापे के कारण मेरा यौवनरूपी मोती कहीं गिर गया है। मैं उसी को खोज रही हूं। वृद्धा के कथन द्वारा चाणक्य ने स्पष्ट किया है कि प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन बुढ़ापा अवश्य आएगा।
व्यालाश्रयाऽपि विकलापि सकण्टकाऽपि
वक्राऽपि पङ्किलभवाऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो
एकोगुणः खलु निहन्ति समस्त दोषान् ।।
- हे केतकी! सभी जानते हैं कि सांप तुझसे लिपटे रहते हैं, तुझमें कांटे भी हैं, तू वक्र भी है और कीचड़ में उत्पन्न होती है। तुझे पाना आसान नहीं है। इतने अवगुण होने पर भी तुझमें सुगंध जैसा गुण है। इस सुगंध के कारण ही तू सबको आकर्षित कर लेती है। भाव यह है कि यदि किसी में अनेक गुणों के बावजूद भी यदि एक गुण है तो उस एक गुण के कारण उसके शेष सभी गुण छिप जाते हैं।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।
- यौवन, धन-संपदा, स्वामित्व, विवेकहीनता में से एक भी गुण (अवगुण) व्यक्ति में हो तो उसके विनाश की संभावना होती है। लेकिन ये चारों ही यदि व्यक्ति में हों तो उसका विनाश निश्चय ही होता है। इन चारों के कारण व्यक्ति स्वेच्छाचारी हो जाता है। इसलिए व्यक्ति को सदैव सतर्क रहना चाहिए।
- चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय / दूसरा अध्याय / तीसरा अध्याय / चौथा अध्याय / पांचवां अध्याय/ छठा अध्याय / सातवां अध्याय / आठवां अध्याय / नौवां अध्याय / दसवां अध्याय / ग्यारहवां अध्याय / बारहवां अध्याय / तेरहवां अध्याय / चौदहवां अध्याय / पंद्रहवां अध्याय / सोलहवां अध्याय
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