चाणक्य नीति: सातवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: सातवां अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का सातवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: सातवां अध्याय ( Chanakya Neeti The Seventh Chapter in Hindi  )


अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।

वञ्चनं चऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।

  • एक बुद्धिमान के लिए यह जरूरी है कि वह धन का नाश, मन, संताप, घर के दोष-किसी को भी न बताए। किसी के द्वारा ठगे जाना और बेइज्जत होना। इन बातों को भूलकर भी प्रकाशित न करे। किसी के भी सामने इन्हें न कहैं।

धन-धान्य प्रयोगेषु विद्यासंग्रहेषु च।।

आंहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेतू ।।

  • अन्न के विक्रय में, विद्या के संग्रह में और व्यवहार में शर्म न करने वाला प्राणी सदा सुखों को प्राप्त करता है और सुखी पुरुष ही सदा खुश रहता है।

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् ।चाणक्य नीति सातवां अध्याय

न च तद् धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ।।

  • धैर्य व संतोष रूपी अमृत का पान करके तृप्त रहने वाले व शांतचित्त लोगों को जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह सुख इधर-उधर मन भटकाने वाले, लोभी, लालची, स्वार्थी लोगों को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता।

सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।

त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः ।।

  • अपनी पत्नी, भोजन और धन इन तीन में ही संतोष करना चाहिए। परन्तु अध्ययन, पूजा-पाठ, दान इन तीनों के बारे में कभी भी संतोष नहीं करना चाहिए। इनकी कोई सीमा नहीं है। यह तो वह सागर है जिसने आप जितना भी आगे बढ़ते जाओगे, उतना ही ज्ञान बढ़ेगा, उतनी ही बुद्धि विकसित होगी।

विप्रयोर्विप्रवक्ष्योश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः ।

अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च ।।

  • दो ब्राह्मण, ब्राह्मण और आग, पति और पत्नी, स्वामी और सेवक, तथा हल और बैल। इनके बीच में से होकर कभी भी नहीं निकलना चाहिए।

पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।

नैव गां न कुमारी च न वृद्धं न शिशुं तथा ।।

  • न आग को, न गुरु को, न ही ब्राह्मण को, न गौ को, न बड़े-बूढ़ों और बच्चों को कभी भी पांव से छूना चाहिए।

शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम् ।

हस्ती शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ।।

  • गाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ, हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिए। दुर्जन से बचने के लिए यदि देश को भी छोड़ना पड़े तो इसमें तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए।

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते।

शृंगी लगुडहस्तेन खङ्गहस्तेन दुर्जनः ।।

  • हाथी हाथ में पकड़े हुए अंकुश से वश में किया जाता है। घोड़ा चाबुक से पीटकर वश में किया जाता है। सींग वाले पशुओं को डंडे से पीटकर वश में करते हैं और कमजोर पुरुष अपने ही हाथ में ली हुई तलवार से मारा जाता है।

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते।

साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु ।।

  • ब्राह्मण भरपेट भोजन मिलने पर, मोर बादलों के गर्जने पर, सज्जन दूसरों की सम्पत्ति से, दुष्ट दूसरों को विपत्ति में देखकर बड़े खुश होते हैं।

अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम् ।

आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा।।

  • बलवान शत्रु को उसके अनुकूल व्यवहार करके, दुष्ट शत्रु को उसके प्रतिकूल व्यवहार करके तथा अपने बराबर की ताकत वाले शत्रु को विनय अथवा ताकत से जीता जा सकता है।

बाहुवीर्यं बलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली ।

रूपयौवनमाधुर्यं स्त्रीणां बलमुत्तमम् ।।

  • भुजाओं का बल ही राजा का बल है। ब्रह्म ज्ञान और वेद का पांडित्य ब्राह्मण का बल है। सौन्दर्य, यौवन और मीठा बोलना नारी का बल है।

नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम् ।।

छिद्यन्ते सरलास्त्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ।।

  • मानव को अत्यन्त सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए। वनों में जाकर देखो कि वहां सीधे वृक्षों को ही काटा जाता है और टेढ़े-मेढ़े वृक्ष बड़े मजे से खड़े रहते हैं, उन्हें कोई नहीं काटता।।

यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसाः तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।

न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते ।।

  • “जहां पर भी जल होता है वहीं पर हंस आते हैं। जब जल सूख जाता है तो वे उस स्थान को छोड़कर चले जाते हैं। परन्तु मानव को हंस की भांति बार-बार आने-जाने वाला स्वार्थी नहीं होना चाहिए।

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।

तडागोदरसंस्थानां परिस्राव इवाऽम्भसाम् ।।

  • कमाए हुए धन को खर्च करना, दान देना उसकी रक्षा मानी जाती है। जैसे जल से भरे तालाब के अन्दर भरे हुए जल को निकालते रहने से ही तो जल स्वच्छ रह सकता है।

स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।

दानप्रसङगो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ।।।

  • इस संसार में दिव्य पुरुषों के शरीर में चार चिह्न होते हैं। दान देने का स्वभाव, मीठा बोलना, देवी-देवताओं को प्रणाम करना, ब्राह्मणों को खुश करना।

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् ।।

नीचप्रसंङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।।

  • नरक में रहने वालों के शरीर में यह चिह्न होते हैं-बहुत ही अधिक क्रोधी स्वभाव, कड़वी भाषा, दरिद्रता, अपने लोगों से ही दुश्मनी, घटिया लोगों के साथ उठना-बैठना, कुलहीनों (छोटी जाति के लोगों की) सेवा करना आदि।

गम्यते यदि मृगेन्द्र-मन्दिरं लभ्यते करिकपोल मौक्तिकम् ।

जम्बुकालयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ-खर-चर्म-खण्डनम् ।।

  • शेर की गुफा में जाने पर ही हाथी के मस्तक का मोती प्राप्त होता है और गीदड़ के स्थान में जाने पर बछड़े की पूंछ तथा गधे के चमड़े मिलते हैं।

शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया बिना।

न गुहूयगोपने शक्तं न च दंश निवारणे।।

  • शिक्षा के बिना व्यक्ति का जीवन कुत्ते की पूंछ के समान व्यर्थ है, क्योंकि कुत्ता अपनी दुम से न तो गुप्त इन्द्रियों को छुपा सकता है और न ही मच्छर-मक्खी आदि को उड़ा सकता है। कुत्ते की भांति मूर्ख इन्सान भी न तो छिपाने वाली बात को छुपा सकता है और न ही शत्रु के आक्रमण को रोक सकता है।

वाचः शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

सर्वभूते दया शौचं एतच्छौचं पराऽर्थिनाम् ।।

  • मन, वाणी, इंद्रिय संयम का महत्त्व तभी है जब व्यक्ति में जीवमात्र के प्रति परमार्थ भाव हो । अन्यथा इसका कोई महत्त्व नहीं है।

पुष्पगन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम् ।

इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकतः ।।।

  • जैसे फूलों में खुशबू होती है, तिलों से तेल निकलता है, काठ में आग, दूध में घी और ईख में गुड़, शक्कर होता है। वैसे ही शरीर में भी आत्मा का वास है। बुद्धिमान और ज्ञानी लोगों को आत्मा से ही परमात्मा को पाकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए।
  1. चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय 
  2. चाणक्य नीति: दूसरा अध्याय
  3. चाणक्य नीति: तीसरा अध्याय
  4. चाणक्य नीति: चौथा अध्याय
  5. चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय
  6. चाणक्य नीति: छठा अध्याय

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Written by lokhindi
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