चाणक्य नीति: छठा अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: छठा अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का छठा भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: छठा अध्याय ( Chanakya Neeti The Sixth Chapter in Hindi  )


श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम् ।

श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ।।

  • शास्त्रों, वेदों के ज्ञान से ही मानव धर्म को जान सकता है और इस ज्ञान से ही पाप बुद्धि को वह छोड़ देता है। इसी ज्ञान की शक्ति से वह श्रेष्ठ माना जाता है और ज्ञान की यही शक्ति उसका कल्याण करती है। इसी शक्ति से वह मोक्ष प्राप्त करता है।

पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।

मुनीनां कोपीः चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः ।।

  • पक्षियों में कौआ-पशुओं में कुत्ता, मुनियों में क्रोधी। यह सब चाण्डाल होते हैं और सबकी निन्दा करने वाला इन्सान सब इन्सानों में चांडाल माना जाता है।

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति।

रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति ।।

  • कांसे के बर्तन राख से मांजने पर, तांबे के बर्तन खटाई से रगड़ने पर शुद्ध हो जाते हैं। स्त्री रजस्वला होने से पवित्र होती है। नदी तेज बहने से निर्मल हो जाती है।

भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।चाणक्य नीति छठा अध्याय

भ्रमन् सम्पूज्यते योगी भ्रमन्ती स्त्री विनश्यति।।

  • भ्रमण करने वाला राजा, ब्राह्मण और योगी सबसे आदर पाते हैं। परन्तु भ्रमण करने वाली नारी सदा भ्रष्ट मानी जाती है।

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्यबान्धवाः।

यस्यार्थाः सा पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ।।

  • इस संसार में वही व्यक्ति विद्वान व सम्माननीय है जिसके पास धन है। धन होने से ही उसके मित्र, बंधुजन भी उसके अपने हैं। धन न हो तो रिश्ते-नातेदार भी दूर रहते हैं। भले ही वह व्यक्ति विद्वान क्यों न हो, सभी उसकी उपेक्षा करते हैं।

तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायो ऽपि तादृशः।

सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता।

  • जैसी होनी होती है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है और वैसे ही कार्य- कलाप मनुष्य करने लगता है। उसके संगी-साथी भी वैसे ही होते हैं। होनी से तात्पर्य भाग्य से है। लेकिन मनुष्य को भाग्य के भरोसे न रहकर पुरुषार्थ भी करते रहना चाहिए।

कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।

कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।।

  • मृत्यु सब इन्सानों को खा जाती है। जब सारा संसार समाप्त हो जाता है तो काल फिर भी जागता रहता है। मृत्यु कभी नहीं मरती। हां, वह सब इन्सानों को मार देती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मृत्यु ही इस संसार में सबसे बड़ी बलवान है। मृत्यु को आज तक कोई नहीं लांघ सका।।

न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति ।

न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थो दोषानु न पश्यति ।।

  • जन्म से जो अन्धा है उसे दिखाई नहीं देता, जो कामवासना में अन्धा है उसे भी कुछ दिखाई नहीं देता, शराब एवं दूसरे नशे करने वाले को भी कुछ दिखाई नहीं देता, स्वार्थी और पापी इन्सान जब अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है तो इस धुन में वह ऐसा अन्धा होता है कि उसे किसी भी काम में दोष नजर नहीं आता।।

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।।

स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ।।

  • जीवन तो स्वयं में ही एक कर्म है और यह जीवन ही कर्म कर्ता है। उन कर्मों के सहारे ही वह दुःख-सुख भोगता है। यही जीव कई योनियों ॐ इस संसार में जन्म लेता है और जब-जब यह जीव पुरुषार्थ करता है तो संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः ।

भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा।।।

  • देश में किए गए पापों को राजा, राजा के द्वारा किए गए पापों को पुरोहित, पत्नी द्वारा किए गए पापों को पति और शिष्यों द्वारा किए गए। पापों को गुरु ही भोगता है। इसलिए हर इन्सान को पाप से दूर रहना चाहिए।

ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी।

भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ।।

  • कर्जा लेने वाला पिता, व्यभिचारिणी मां, सुन्दर स्त्री और मूर्ख पुत्र यह सब शत्रु के समान होते हैं।

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।

मूर्ख छन्दोऽनुवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम् ।।

  • लोभी को धन से, अभिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उसकी इच्छा के अनुसार और विद्वान को सदा सत्य बोलकर वश में किया जा सकता है।

वरं न राज्यं न कुराज्यराज्यं वरं न मित्रः न कुमित्रमित्रम् ।।

वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दाराः न कुदारदाराः ।।

  • यदि कोई राजा पापी और स्वार्थी है तो उससे राज्य का न होना ही अच्छा है। इसी प्रकार धोखेबाज और ढोंगी मित्रों से मित्र न होना ही अच्छा है। बुरे और चरित्रहीन शिष्यों से तो शिष्य का न होना ही अच्छा है और दुराचारी नारी को पत्नी बनाने से तो अच्छा है, इन्सान विवाह ही न करे।

कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निर्वृत्तिः ।

कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ।।

  • पापी और अत्याचारी राजा के राज में प्रजा को सुख मिलना असम्भव है, धोखेबाज मित्रों से कभी आनंद मिले यह एक सपना ही है, दुष्ट नारी को पत्नी बनाकर सुख की आशा रखना बेकार है। मन्दबुद्धि और मूर्ख शिष्य को शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं होता। ऐसे शिक्षक को कभी ये यश नहीं मिलता।

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ।

वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि गर्दभात् ।।

  • इन्सान को शेर और बगुले से एक-एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच कुत्ते से छ: और गधे से तीन गुण सीखने चाहिए।

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।।

सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ।।

  • इन्सान जो भी छोटा-बड़ा काम करना चाहता है, उसे अपनी पूर्ण शक्ति से करे। यह शिक्षा उसे सिंह से लेनी चाहिए।

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।

देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।

  • विद्वान और ज्ञानी इन्सान को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को वश में करके, मन को एकाग्रचित्त करके तथा देश-काल और अपने बल को अच्छी तरह जान कर बगुले के समान अपने सारे कार्यों को सिद्ध करे।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु ।

स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ।।

  • यथा समय जागना, युद्ध के लिए तैयार रहना, बंधुओं को उनका हिस्सा देना और आक्रमण करके भोजन करना। इन चारों बातों को मुर्ग से सीखना चाहिए।

गूढ च मैथुन थाष्ट्र्यं च काले काले च संग्रहम् ।

अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात् ।।

  • छिपकर मैथुन करना, धृष्टता, समय-समय पर संग्रह करना, समय होशियार रहना और किसी पर भी विश्वास न करना। इन पांच बातों को कौए से सीखना चाहिए।

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः।

स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः ।।

  • अधिक खाने की शक्ति रखना, यदि न मिले तो थोड़े में ही सब्र करना, गहरी नींद में सोना, जरा भी आहट होने पर जाग जाना, अपने मालिक से वफादारी और उसकी भक्ति करना, बहादुरी से शत्रु से युद्ध करना। यह छह गुण इन्सान को कुत्ते से सीखने चाहिए।

सुश्रान्तोऽपि वहेदू भारं शीतोष्णं न च पश्यति।

सन्तुष्टश्चरति नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ।।

  • बहुत थककर भी बोझ उठाते जाना, गर्मी-सर्दी की परवाह न करना और सदा धैर्य व संतोष से जीवन व्यतीत करना। इन तीन गुणों को धैर्यवान गधे से सीखना चाहिए।

य एतान् विंशति गुणाना चरिष्यति मानवः।

कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।

  • जो भी प्राणी इन बीस गुणों को अपने जीवन में पल्ले बांधकर इन्हें पूर्ण रूप से धारण करेगा, वंह सदा ही सफल रहेगा। खुशियां उसके साथ रहेंगी।
  1. यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय 
  2. यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: दूसरा अध्याय
  3. यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: तीसरा अध्याय
  4. यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: चौथा अध्याय
  5. यह भी पढ़े: चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय

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Written by lokhindi
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