चाणक्य नीति: तेरहवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi
चाणक्य नीति: तेरहवां अध्याय
‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का तेरहवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: तेरहवां अध्याय (Chanakya Neeti Thirteenth Chapter in Hindi )
मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।
- जो अच्छे लोग होते हैं, वे श्रेष्ठ कर्म करते हैं। ऐसे लोगों का चिरकाल तक जीवित रहना अच्छा है। परन्तु इसके विपरीत जो लोग बुरे हैं, पापी हैं और बुरे कर्म करते हैं, उनका जीना किसी के लिए भी लाभदायक नहीं है। उनके मर जाने में ही मानवता की भलाई है।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः ।।
- जो हो चुका उसका दु:ख नहीं करना चाहिए। भविष्य में क्या होने वाला है, इसकी भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। बुद्धिमान लोगों का यह कर्तव्य है कि वे अपने काम में मन लगाकर जुट जाएं। फल एवं परिणाम की बातें सोचकर अपने वर्तमान को कष्टदायक बनाने वाले मूर्ख होते हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन लगाकर कर्म करे। अतीत में झांककर अपने भविष्य को कष्टदायक न बनाए।
स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता।
ज्ञातयः स्नानपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः ।।
- विद्वान लोग, सज्जन पुरुष और पिता यह सब स्वभाव से ही संतुष्ट होते हैं। सगे-सम्बन्धी, मित्र और पंडितजन केवल मधुर बोल से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
अहो बत विचित्राणि चरितानि महाऽऽत्मनाम् ।।
लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्बारेण नमन्ति च ।।
- महात्माओं का चरित्र भी बड़ा ही विचित्र होता है। पल में तोला-पल में माशा। वे धन को तृण (तिनके) के समान तुच्छ मानते हैं परन्तु उसके भार से नम्र हो जाते हैं।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम् ।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम् ।।
- जो लोग किसी से प्रेम करते हैं, उन्हें उसी से डर भी लगता है। यह प्रेम ही सब दु:खों की जड़ है। अत: प्रेम के इन बन्धनों को तोड़कर ही आप सुख पा सकते हैं।
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा।
द्वावेतौ सुखमेधेते यद् भविष्यो विनश्यति।।
- जो लोग संकट आने से पूर्व ही अपना बचाव कर लेते हैं और जिन्हें ठीक समय पर अपनी रक्षा का उपाय सूझ जाता है। ऐसे सब लोग सदा सुखों के झूले में झूलते हैं और खुश रहते हैं। परंतु जो लोग सदा यही सोचकर पड़े रहते हैं कि जो भाग्य में लिखा है वही तो होगा, भला कोई उसे बदल सकता है ? इसलिए जो होता है होने दो। ऐसा सोचने वाले लोग कभी सुख नहीं पा सकते, वे अपने जीवन को स्वयं नष्ट करते हैं। भाग्य की लकीरों को वे अपने कर्म और परिश्रम से बदलने का प्रयास क्यों नहीं करते?
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।।
- राजा यदि धार्मिक होगा तो प्रजा अपने आप धर्म का पालन करेगी। यदि राजा ही पापी और निर्दयी होगा तो फिर प्रजा भी तो पाप के मार्ग पर चलेगी । प्रजा तो केवल राजा के पीछे चलती है। जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः ।।।
- जिस प्राणी में धर्म का नाम नहीं, मैं ऐसे प्राणी को मरे हुए पुरुष के समान ही मानता हूं। जो धर्म पर जान देते हैं, जो धर्म मार्ग पर चलकर दूसरों की भलाई के लिए सोचते हैं, ऐसे सज्जनों के जीवन को ही सच्चा जीवन मानता हूं । वास्तव में पूरी मानवता उस पर गर्व करती है फिर यही होता है कि कर भला तो हो भला, अन्त भले का भला।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।
- जिन लोगों के जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से एक भी नहीं है, उनका जन्म तो बिल्कुल ही व्यर्थ होता है। ठीक बकरी के गले में लटके हुए स्तन की भांति जिसका कि कोई भी उपयोग नहीं होता।
दह्यमानाः सुतीव्रण नीचाः पर-यशोऽग्निना।।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।।
- बुरे लोग दूसरों की उन्नति को देखकर जलते हैं। जब वे लोग स्वयं उन्नति करके पीछे रह जाते हैं तो वे ऐसे गुणों की निन्दा करते हुए यही कहते हैं कि यह सब बेकार है। ऐसे काम करने से भी भला कोई लाभ है।
बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।।
- बन्धन और मोक्ष का कारण केवल हमारा यह मन ही होता है और यदि यही मन विषय विकारों में फंसकर जीवन के लक्ष्य से भटक जाए तो प्राणी पाप के मार्ग पर चलने लगते हैं। इसलिए यदि आप मोक्ष चाहते हैं तो अपने मन से विषय-विकारों को निकाल दें। विषय-विकार, काम, लोभ-मोह, अहंकार यह जिस मन में रहते हैं, वह मन कभी शांत नहीं रह सकता। ।
देहाभिमाने गलिते ज्ञानेन परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ।।
- इस शरीर के अभिमान का नाश और ईश्वर की भक्ति में लग जाने पर जहां-जहां भी आपका मन जाएगा, वहीं-वहीं समाधि समझनी चाहिए।
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम् ।
दैवाऽऽयत्तं यतः सर्वं तस्मात्सन्तोषमाश्रयेत् ।।
- सारी आशाएं तो कभी किसी की भी पूरी नहीं होतीं, क्योंकि यह सब कुछ तो हमारे कर्मों पर और भाग्य पर ही निर्भर है। जैसे हमारे कर्म होंगे वैसा ही तो हमारा भाग्य होगा। जो बोएंगे वही तो काटेंगे।
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् ।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।।
- जैसे गौओं के झुंड में से भी बछड़ा अपनी मां को पहचान लेता है, सबको छोड़कर केवल अपनी मां के पास ही जाता है। उसी प्रकार इन्सान जो भी कर्म करता है, उसे अपने उन ही कर्मों का फल हर हाल में भोगना पड़ता है।
अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम् ।
जने दहति संसर्गो वने सङ्गविवर्जनम् ।।
- जो लोग बुरे कर्म करते हैं, पापी हैं, उन्हें न तो इस समाज में सुख मिलता है और न ही उन्हें वनों में सुख मिलता है। इस समाज में मनुष्य का संसर्ग उन्हें जलाता रहता है और जंगलों में वह अपने एकांत से दु:खी होकर तड़पते हैं।
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।
तथापि सुधियश्चाऽऽर्याः सुविचार्यैव कुर्वते ।।
- प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसको फल मिलता है। बुद्धि भी मनुष्य के कर्मों के अनुसार चलती है। यही कारण है कि सज्जन लोग हर काम को सोच-समझकर, उसका नफा-नुकसान सोच कर ही करते हैं।
यथा खात्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ।।
- जैसे धरती खोदने वाले फावड़े आदि द्वारा इस धरती को खोदकर उसमें से पानी प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही गुरु की सेवा करने वाले विद्यार्थी गुरु से ज्ञान और बुद्धि प्राप्त करते हैं।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरु नाभिवन्दति।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते।।
- जो इन्सान एकाक्षर ज्ञान को देने वाले गुरु तथा अविनाशी ईश्वर का ज्ञान देने वाले लोगों का मान-सम्मान नहीं करता, उनके चरणों में झुककर प्रणाम नहीं करता, ऐसा प्राणी सौ बार कुत्ते का जन्म लेकर अन्त में किसी चाण्डाल के घर में जन्म लेता है। उसे किसी भी जन्म में शांति नहीं मिलती, इसलिए गुरु की सेवा करो, अपने अगले जन्म को सुधारो।
युगान्ते प्रचलते मेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः।
साधवः प्रतिपन्नार्थानं न चलन्ति कदाचन।।
- युग के अन्त में सुमेरु पर्वत चलायमान हो जाता है। कल्प के अन्त में सातों सागर भी अपनी मर्यादा को छोड़ देते हैं। परन्तु अच्छे और बुद्धिमान लोग अपने हाथ में लिए कामों को अथवा अपनी की हुई प्रतिज्ञा को कभी भी नहीं तोड़ते, नहीं भूलते हैं।
- चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय / दूसरा अध्याय / तीसरा अध्याय / चौथा अध्याय / पांचवां अध्याय/ छठा अध्याय / सातवां अध्याय / आठवां अध्याय / नौवां अध्याय / दसवां अध्याय / ग्यारहवां अध्याय / बारहवां अध्याय
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