शिक्षा पर हिंदी निबंध – Essay on Education
शिक्षा पर हिंदी निबंध
Education: strong threshold of development Essay / शिक्षा: विकास की मजबूत दहलीज पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (शिक्षा विकास की मजबूत दहलीज पर हिंदी निबंध)
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विकास के बदलते कारक: शिक्षा
शिक्षा शोषण का सबसे बड़ा प्रतिरोधक तो है ही, यह विकास की दहलीज़ भी है। बीसवीं शताब्दी के मध्य भौतिक समृधि का आधारभूत कारक वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति तथा उसके फर्लस्वरूप होनेवाले उद्योगों एवं कृषि के विकास को गया।बीसवीं सदी के उत्तरार्ध विकसित और विकासशील देशों ने इस दिशा में यथासामथ्र्य दौड़ लगाई और पाया कि विकसित देशों में तो समृद्धि काफी बढ़ी है किंतु विकासशील देश वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के बावजूद आर्थिक भिन्नता, जनसंख्या वृधि, बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण एवं प्रदूषण से ग्रस्त ही रहे। इसलिए दुनिया के पिछले 5-6 दशकों में हुए विकास के अनुभव के बाद विकासशील देशों के विकास की दशा और प्रक्रिया पर पुनर्चितशुरू हुआ है और इसी के फलस्वरुप समाज के संतुलित विकास के कारकों में गुणात्मक शिक्षा का सार्वजनीकरण भी प्रमुखता साथ उभर कर आया है । अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता भारतीय मूल के अमरीकी प्रवासी अर्थशास्त्री प्रो. अमत्र्य सेन ने भी विकासशील देशों के संदर्भ में सार्वजनिक शिक्षाजन्य विकास की अवधारणा को विश्व स्तर पर उजागर किया है। इसलिए विकास के आर्थिक कारकों के साथ सामाजिक-सेवाओं से संबंधित कारक, जिनमें भी सार्वजनिक शिक्षा संबंधी कारक का सर्वोपरि स्थान है, अपना महत्त्व रखते हैं।
शिक्षा और मानव सामर्थ्य का विकास:
शिक्षा मानव चेतना के लिए न केवल स्वयं में एक उजास है बल्कि यह अन्य वस्तुओं को देखने और उन्हें सही दिशा में व्यवस्थित करने के लिए उपयुक्ततम मानवीय साधन भी है, अर्थात् शिक्षा मानव विकास के भौतिक साधनों के विकास का भी साधन है।
यूनीसेफ द्वारा विश्व स्तर पर कराए गए एक अध्ययन के अनुसार शिक्षा व्यक्तियों व समाजों को अधिकारों से लैस करती है, कौशल के निर्माण की ओर ले जाती है और रोज़गार के नए अवसरों के द्वार खोलती है, उत्पादकता बढ़ाने में मदद करती है; सार्वजनिक मामलों में उन्नत भागीदारी संभव बनाती है, परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को ऊंचा उठाती है; समुदाय के भीतर तथा परिवार के भीतर संसाधनों के अधिक समतापूर्ण वितरण को संभव बनाती है; प्रजनन दरों को कम करती है और आबादी पर सकारात्मक असर डालती है तथा बेहतर स्वास्थ्य में योगदान करती है।
इस प्रकार शिक्षा मानव में समग्रता के साथ सामथ्र्य का विकास करती है इसलिए शिक्षा सामाजिक विकास के लिए दीर्घकालीन विनियोग है किंतु शिक्षा को यदि सर्वजन से नहीं जोड़ा जाता है तो फिर यह समाज के वर्चस्वशाली शिक्षित लोगों द्वारा अशिक्षित लोगों के शोषण का ज़रिया तथा शोषण के लिए अपनाए जानेवाले समस्त प्रकार के हथकंडों को मजबूत करने का माध्यम भी बन जाती है। भारत जैसे विकासशील देशों में शिक्षा के सार्वजनीकरण के अभाव ने सामाजिक-आर्थिक विषमता को और अधिक बढ़ाया है।
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मानव सामथ्र्य का विकास और समृद्धि:
व्यक्ति और समाज की भौतिक समृद्धि में वृद्धि करने के लिए शिक्षा के द्वारा मानव-सामर्थ्य को बढ़ाना अनिवार्य है। विकसित देशों ने लगभग शत-प्रतिशत स्तर तक न केवल साक्षरता द्वारा बल्कि उच्चतर शिक्षा के द्वारा अपनी आर्थिक समृब्धि तो बढ़ाई ही, इसके अलावा लोकतांत्रिक एवं समता आधारित सामाजिक संरचनाओं को भी विकसित किया है। अमत्र्य सेन कहते हैं कि ‘लोकतंत्र और मानवाधिकार न केवल अपने-आपकों महत्वपूर्ण हैं बल्कि ये सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास के लिहाज़ से भी बहुत महत्वपूर्ण है।’ उन्होंने विकासशील देशों में पड़े अकाल के व्यापक अध्ययन से यह निष्कर्ष दिया है कि लोकतंत्रात्मक सरकारें अकाल रोकने के पूरे उपाय करती हैं। उन्हें इस बात का हमेशा डर रहता है कि जनता की नाराज़गी पर उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है। इसके विपरीत स्वेच्छाचारी या निरंकुश शासकों को जनता की नाराज़गी का कोई भय नहीं होता। यही कारण है कि अकाल सूडान जैसे निरंकुश या स्वेच्छाचारी शासन में अधिक पड़ते हैं, भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में नहीं, अतः एक जागरूक लोकतंत्र का जनता की शिक्षा से उद्भूत राजनीतिक चेतना से सीधा संबंध है। भारत में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होता जा रहा है। भारतीय राजनीति में वंशवाद, आभिजात्यवाद और सामंतवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि मध्यकालीन सामंती राजनीति के तत्त्वों का प्रभाव क्रमशः कम होता जा रहा है, इसलिए केंद्र एवं राज्य स्तर पर सत्ता परिवर्तन शीघ्र होने लगा है तथा अब सामंती तत्व और राजनीतिक भ्रष्टाचार भी सहज ही उजागर होने लगे हैं।
इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत में शिक्षित वर्ग की समृद्धि अशिक्षित की तुलना में अधिक बढ़ी है। केरल, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र आदि अधिक शिक्षित प्रदेशों ने आर्थिक सुधार समृद्धि, तकनीकी विकास, कृषि एवं औद्योगिक विकास को अधिक प्रोत्साहित किया है तथा बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान आदि प्रदेशों में शिक्षा का स्तर नीचा होने के कारण आर्थिक-विकास की दौड़ में वे पीछे रहे हैं। इस तरह शैक्षिक विषमता सामाजिक -आर्थिक विषमता की भी पोषक है। यद्यपि आर्थिक विकास और शिक्षा का प्रसार अन्योन्याश्रित है किंतु शिक्षा मानव-विकास का अधिक व्यापक आधार है और वह व्यक्ति को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करने के साथ-साथ उसको स्वास्थ्य, सामाजिक व्यवहार एवं मानव- विकास की अन्याय प्रक्रियाओं को समझने में बहुत बल देता है। यदि हम शिक्षा को महत्व देते हैं तो मात्रात्मक एवं गुणात्मक दृष्टियों से शिक्षा का प्रसार तेजी होने लगता । इस प्रकार शिक्षा के विकास में अन्य विकासों की त्वरित कुंजी भी सम्मिलित है।
बौधिक क्षमता का विकास और स्वतंत्रता-समतामूलक विकास:
पुरी दुनिया में, विशेष रूप से विकासशील देशों में और भारत में भी नागरिकों की बौद्धिक क्षमता के विकास ने उनकी स्वतंत्रता और समतामूलक चेतना और स्थितियों को बहुत प्रभावित किया है । यद्यपि शिक्षित वर्ग अशिक्षित वर्ग के शोषक के शोषक के रूप में भी स्थापित हुआ है तथा शिक्षित-विकसित देशों द्वारा अल्पशिक्षित्-अल्पविकसित देशों का शोषण किया गया है। और किया जा रहा है; किंतु शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप इस शोषण की समझ और उसका विरोध भी प्रबल होता जा रहा है। अगर षड्यंत्रों की योजनाओं पर योजनाएं बनाई जा रही हैं तो उनके प्रति सावचेती और विद्रोह के स्वर भी बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार शिक्षा के प्रसार के कारण शोषण के शिकंजे लम्बे समय तक कसे रहने की संभावनाएं कम होती जा रही हैं। यूरोपीय देशों के संगठन के साथ-साथ गुट-निरपेक्ष देशों, दक्षिण एशियाई देशों (सार्क), अफ्रीकी देशों (अफ्रीकी एकता संगठन), दक्षिणी गोलाद्र्ध के देशों आदि के संगठन भी बनते जा रहे हैं । हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर विकासशील देशों की आवाज़ उठती रहती है। विश्व व्यापार संगठन के सम्मेलनों में विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों की व्यापारिक नीति का जिस तरह से निरंतर विरोध और विद्रोह होता रहा है, वह इसी प्रकार की चेतना का परिणाम है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एवं विकासशील देशों में राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा और साक्षरता को समाज की अनिवार्यता घोषित किया गया है तथा यथाशीघ्र उसे अर्जित करने की व्यापक चेतना फैलती जा रही है। अब अशिक्षा को मानव विकास में सर्वाधिक बाधक तत्व माना जाने लगा है तथा शिक्षा को मानव विकास की पहली शर्त और शिक्षा के अभियान को धर्मयुद्ध (Crusade) कहा गया है।
विकासशील देशों में बढ़ती जा रही जनसंख्या, बेरोज़गारी, अस्वास्थ्य, ग़रीबी आदि को सही शिक्षा के अभाव के परिणाम के रूप में देखा जाता है। भारत में आर्थिक विषमता को शैक्षिक विषमता के रूप में भी देखा जाता है। भारत में आर्थिक विषमता को शैक्षिक विषमता के रुप में भी देखा जाता रहा है । ग़रीबी की रेखा से नीचे जीनेवाले अधिकतर लोग निरक्षर ही हैं और इसलिए वे ही आर्थिक एवं सामाजिक विपन्नताओं से सर्वाधिक ग्रस्त भी हैं। अशिक्षित लोगों में लोकतांत्रिक चेतना का अभाव अधिक है इसलिए उन्हीं के वोटों को जाति, शराब तात्कालिक आर्थिक लोभ आदि के आधार पर सस्ते में खरीदने का प्रयास किया जाता है। यह निरक्षर वर्ग ही ग़रीब भी है और संपन्न वर्ग द्वारा शोषित भी । यही तबका सबसे कम संगठित भी है तथा राजनेता से लेकर व्यापारी एवं ठेकेदार तक इसी वर्ग का सर्वाधिक शोषण करता है। यदि ग़रीबी की रेखा से नीचे जीनेवाले व्यक्ति को शिक्षित कर दिया जाता है तो समाज की आर्थिक राजनीतिक-सामाजिक चेतना और संरचनाओं में व्यापक परिवर्तन की संभावनाएँ हैं।
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शिक्षा और भूमंडलीकरण:
भूमंडलीकरण का सबसे अधिक नुकसान उन देशों को है जिनमें सामाजिक सुरक्षा का कवच नहीं है, अर्थात् जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोज़गार की गारंटी नहीं है, इनमें भी शिक्षा सर्वाधिक आधारभूत है। यदि सभी लोग शिक्षित नहीं हैं और अर्थव्यवस्था पर भूमंडलीकरण के कारण आ रहे दबावों का मुकाबला करने एवं अवसरों का लाभ उठाने के लिए शिक्षा का माकूल स्तर नहीं है तो फिर न केवल एक देश के भीतर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी शोषण से मुक्ति संभव नहीं है। भूमंडलीकरण के द्वारा क्रमश: बढ़ती रही प्रतिस्पद्र्धा अशिक्षित लोगों को अप्रासंगिक घोषित कर रही है और अब इस अशिक्षित एवं गरीब वर्ग को कोई भी सरकार, विशेषकर विकासशील देशों की ऋणग्रस्त एवं दीवालिया घोषित-सी सरकारें उन्हें बचा नहीं पा रही हैं। भूमंडलीकरण मध्यम वर्ग को अधिकाधिक बढ़ाकर उसे अपने उपभोक्ता में बदलना चाहता है, अशिक्षित अर्थात् विपन्न वर्ग द्वारा किया जानेवाला सीमित-सा उपभोग उसकी नज़र में नहीं है, अत: वह उसे एक बलि के बकरे की तरह भी विकसित नहीं करना चाहता, दरअसल उसकी सूखी हडियों में रखा ही क्या है। विकासशील सरकारें इस निरक्षर वर्ग के लिए अपनी राजनीतिक सहूलियतों को ध्यान में रखकर, कुछ-न-कुछ उपाय करने का स्वाँग करती रहती हैं और इसी प्रक्रिया में भारत की तरह अन्य विकासशील देशों में भी कमोबेश शिक्षा का अगंभीर प्रयास होता रहता है। इस तरह भूमंडलीकरण की सर्वाधिक मार विकासशील
देशों के इस अशिक्षित वर्ग को ही झेलनी पड़ रही है, जिसको यह भी पता नहीं चल पाता कि यह मार किस की ओर से है और उस पर पड़ क्यों रही है। इसलिए प्रगतिशील सरकारों को एवं गैर-सरकारी संगठनों को भूमंडलीकरण के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए साक्षरता एवं शिक्षा के दिशा है। इसीलिए अमत्र्य सार्वजनीकरण की में आंदोलन छेड़ने की आवश्यकता है । इसलिए अमत्र्य सेन भूमंडलीकरण को तो अब अपरिहार्य मानते हैं किंतु उसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए शिक्षा के सार्वजनीकरण पर बहुत बल देते हैं।
अनुपयुक्त शिक्षा और मानव विकास की समस्या:
भारत-जैसे देशों में शिक्षा का अभाव तो है ही, हम साक्षर भी मुश्किल से 70 प्रतिशत ही हो पाए हैं और साक्षरता के इन आंकड़ों की विश्वसनीयता भी संदेहास्पद है; किंतु साक्षरता से ऊपर के स्तर की जो कुछ शिक्षा है वह भी बेरोज़गारी पैदा करके अपने-आपमें सामाजिक विकास की एक अलग ही समस्या को जन्म दिए हुए है। यह प्रश्न अशिक्षा का नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता और सार्थकता का है। निरर्थक शिक्षा ने रोज़गार के लिए अयोग्यता तो पैदा की ही है; व्यक्ति में अहम, कुंठा, श्रम-विमुखता और चालाकी को और पक्का कर दिया है जिससे व्यक्ति अनुत्पादक होने के साथ-साथ मानसिक रुग्णता का भी शिकार होता जा रहा है। शिक्षा की इस दुर्व्यवस्था ने भारतीय समाज के विकास के परिवेश को सर्वाधिक निष्क्रिय, अनुत्पादक और भ्रष्ट बना दिया है। शिक्षा के साथ-साथ व्यक्ति के मूल्य-बोध का जो ह्रास होता जा रहा है उससे समाज की कार्य-संस्कृति भी नष्ट होती जा रही है । प्राय: एक उदासीन, निकम्मे और बेईमान शिक्षित वर्ग को लेकर हम समाज की वर्तमान समस्याओं, विशेष रूप से भूमंडलीकरण की समस्या से कैसे निबटेंगे यह अपने-आपमें चुनौती है ।विडंबना तो यह है कि आधुनिक युग में हमारे समाज के विकास की ठेकेदार बनी हमारी राजनीति इस मूल्य-पतन को सर्वाधिक अपनाए हुए है । भूमंडलीकरण के सामने वह जिस तरह घुटने टेकती जा रही है उसमें हमारी इस तथाकथित शिक्षित पीढ़ी के अप्रासंगिक हो जाने, भरमा जाने तथा देशी-विदेशी पूंजीपतियों एवं सत्ताधारियों के हाथों बिक जाने का ख़तरा है। यदि हमने हमारे समाज में कर्मठ कार्य संस्कृति को पैदा नहीं किया तो हम आर्थिक गुलामी के साथ-साथ राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गुलामी से भी बच नहीं पाएंगे। भूमंडलीकरण का खुलापन केवल कर्मठ और जागरूक को ज़िदा रखेगा और सही शिक्षा के अभाव के कारण न हम अपने विकास लिए कर्मठ हैं और न ही अपने विनाश से बचने के लिए सजग।
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भारत में शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में वर्तमान प्रयास:
एक समाज का सामाजिक-आर्थिक ढाँचा शिक्षा के न केवल स्वरूप को तय करता है बल्कि उसके प्रचार की गति को भी नियंत्रित करता है। भारतीय समाज में जो अधिनायकता, गतानुगतिक्ता और विषमता है उसी के अनुसार शिक्षा देने के तरीके में ज्ञान के थोपने की प्रवृत्ति, पाठ्यक्रमों एवं शिक्षण-पद्धतियों में यथास्थिति तथा शिक्षा के स्तरों में विषमता व्याप्त है । शिक्षा को स्थानीय सामाजिक यथार्थ से जोड़ने, सीखने-सिखाने को कल्पनाशील बनाने, विद्यालय की गतिविधियों को उत्पादन की व्यापक प्रक्रिया के संपर्क में लाने का कोई ठोस एवं व्यापक तरीक़ा हमारे पास नहीं है। नई शिक्षा नीति-1986 में इन सबकी कल्पना की गई थी किंतु हमारे जड़ तंत्र द्वारा की गई उसकी अंगभीर क्रियान्विति में उन सब की भद्द उड़ चुकी है। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री सभी बच्चों को विद्यालय में प्रविष्ट कराने का वादा करते रहे हैं जो यथार्थपरक लगता नहीं। ‘विश्व शिक्षा मंच’ के 2000 में हुए सम्मेलन में 180 देशों ने 2015 तक सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य तय किया है । देखना भारत की सक्रियता अभी बहुत पीछे है। वर्ष 1993-94 में शिक्षा के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा अपने
कुल व्यय का मात्र 0.87% अंश ख़र्च किया जाता था जो 6% तक बढ़ाने की घोषणा करने के बावजूद अब मुश्किल से 3.8% के आसपास पहुँचा है जिसमें से 95% व्यय तो शिक्षकों के वेतन एवं भवन आदि के रखरखाव पर ही हो जाता है। उच्च शिक्षा भी नितांत ग़ैर-व्यावसायिक, शोधहीन एवं अराजक स्थिति से गुज़र रही है। इसलिए शिक्षा-प्रसार के बढ़ते आँकड़ों के बावजूद हमारी शिक्षा न केवल रोज़गार की दृष्टि से बल्कि मानव-विकास के व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रभावहीन ही नहीं बल्कि अनेक रूपों में नकारात्मक भूमिका अदा कर रही है। उच्च शिक्षा एक फ़िजूलखर्चा-सी लग रही है तो प्राथमिक शिक्षा नीरस और जड़ तथा प्रौढ़ शिक्षा निरी आंकड़ेबाज़ी। भारतीय शिक्षा के इस धूमिल और दर्दनाक दृश्य से मानव विकास की सामर्थ्य को बढ़ाने की अपेक्षाएँ बहुत कम हैं । शिक्षण के द्वारा बहुत कम लोग ‘विकसित’ हो रहे हैं, ज्यादातर तो भ्रमित ही हैं।
उपसंहार : शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन की ज़रूरत:
यदि हमने शिक्षा के इस परिदृश्य को क्रांतिकारी ढंग से नहीं बदला तो भारतीय समाज के विकास की संभावना न केवल सीमित है बल्कि भ्रमित और पेचीदा करनेवाली भी हैं। इसलिए भारतीय समाज के विकास के लिए आर्थिक खिड़कियों की मरम्मत करने के साथ-साथ शिक्षा के महाद्वार का जीर्णाद्धार करना चाहिए । भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में यह और भी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि अब दुनिया के तमाम अशिक्षित लोगों की होड़ न केवल अपने देश के शिक्षितों से है बल्कि सभी देशों के शिक्षितों से है। जिस प्रकार चीन ने आमजन को शिक्षित करने एवं विशेष रूप से तकनीक-क्षम बनाने का प्रयास किया तो हम एक कुशल उत्पादक समाज की बजाय उपभोक्ता समाज बनकर रह जाएँगे और सामाजिक परिवर्तन की भयंकर विभीषिकाओं को भागोंगे। यदि हमने अशिक्षितों और अविकसितों को तथाकथित शिक्षितों और विकसितों के शोषण से नहीं बचाया, इन दोनों के बीच की खाई को नहीं पाटा तो यह सदी बीसवीं शताब्दी से अधिक शोषक, अशांत और रक्त-रंजित होगी।
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