राजनीति में महिलाएँ निबंध

राजनीति में महिलाएँ निबंध: Women in politics Essay

राजनीति में महिलाएँ निबंध

Women in politics: increasing participation / राजनीति में महिलाएँ : बढ़ती भागीदारी पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (राजनीति में महिलाएँ हिंदी निबंध)


राजनीति में महिलाएँ: आपवादिक भागीदारी

दुनिया के इतिहास में राजनीति बहुत विकट कर्म रही है। राजनीति ने धर्म की रक्षा करने के नाम पर, जनता की जानमाल की सुरक्षा करने के नाम पर जनता को जमकर शोषण किया है, खून बहाया है। इसलिए राजनीति न केवल सामान्य पुरुषों का बल्कि कठोर और क्रूर व्यवहार रखने वाले पुरुषों का अखाड़ा रही है। पुरुषों के अपने शारीरिक बल और उससे उपजे अहम् से राजनीति परिचालित रही है। इसलिए राजनीति में तुलनात्मक रूप से कोमल स्वभाववाली महिलाओं की भागीदारी संपूर्ण विश्व में कम रही है। न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में राजनीति में महिलाओं की सहभागिता अपवादस्वरूप ही रही है। किंतु आधुनिक युग में राजतंत्र के पतन और लोकतंत्र के विकास के साथ-साथ जब सेना और पुलिस बल के बूते पर राजनीति का संचालन कम होने लगा तथा जनमत को विशेष महत्त्व मिलने लगा तब समाज के चंद बलशाली व्यक्तियों के स्थान पर आम जनता को भी वर्चस्व बढ़ने लगा। आम जनता की भागीदारी में धीरे-धीरे महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ने लगी। महिलाओं की इस बढ़ती भागीदारी से राजनीति का स्वरूप ही बदलता जा रहा है और जो न केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक अपूर्व अनुभव है। लेकिन विचारणीय यह है कि क्या राजनीतिक अधिकारों पर कुंडली मारे बैठी यह पुरुषों की जमात दुनिया के राजनीतिक माहौल को तनाव-रहित बनाने के लिए राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का विवेक अपनाएँगे?

विश्व राजनीति और महिला भागीदारी

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर विकसित एवं विकासशील देशों में कमोवेश एक-सी स्थिति है। यद्यपि दुनिया के सभी संविधान में पुरुषों के समान महिलाओं के लिए भी राजनीतिक अधिकारों का प्रावधान किया था है किंतु व्यवहार में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नगण्य है। जुलाई, 95 से जनवरी, 97 तक की अवधि के लिए किए विश्वव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार 179 देशों में हुए चुनावों में महिला सांसदों में केवल 0.4 प्रतिशत की ही वदधि हुई। इसी तरह विश्व में महिला सभापति (संसद) केवल 7 प्रतिशत हैं तथा पार्टी नेता केवल 11 प्रतिशत हैं। नई दिल्ली में हुए महिला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भी यह आवाज़ उठाई गई थी कि तमाम दुनिया में राज़नीति में महिलाओं की सहभागिता बहुत कम है। केवल विकासशील देशों में ही नहीं अमेरिका, जापान और यूरोप के विकसित देशों में भी यही स्थिति है। वर्तमान में दुनियाभर की संसदों में मात्र 11.7 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि हैं। भारतीय संसद में भी 11% महिलाएँ ही है। यद्यपि अर्जेंटीना, बेल्जियम, उत्तरी कोरिया, नेपाल, ब्राज़ील, फ़िलीपींस आदि देशों ने अपनी-अपनी संसदों में न्यूनतम भागीदारी रखने के लिए क़ानून बनाए हैं, किंतु बहुत कम संख्या में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसलिए ‘अंतर संसदीय संघ’ के नई दिल्ली में हुए अधिवेशन का लक्ष्य सांसदों में महिलाओं की बराबरी की भागीदारी प्राप्त करने का वातावरण बनाना था जिसमें 30 प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षण करने की सिफ़ारिश की गई थी।

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भारतीय राजनीति में महिलाएँ

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर भारत के इतिहास में आधुनिक काल ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई, मैडम बीकाजी कामा, कस्तूरबा, अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गाँधी आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। स्वतंत्रता के बाद की राजनीति में नंदिनी सत्पथी, मोहसिना किदवई, गिरिजा व्यास, सुषमा स्वराज, मायावती, वसुंधरा राजे, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी, रेणुका चौधरी, सोनिया गाँधी आदि ने सक्रियता दिखाई है। इंदिरा गाँधी ने तो 16 वर्ष तक प्रधानमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व किया है। आज़ादी के तुरंत बाद बनाए गए देश के संविधान में राजनीति को लेकर महिलाओं को न केवल पुरुषों के समान वोट देने का समान अधिकार दिया है बल्कि पंचायत से लेकर संसद तक जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनाव लड़ने का भी अधिकार दिया है।

इस प्रकार पंचायत राज व्यवस्था में सभी जन-प्रतिनिधि मंचों पर कम से कम एक-तिहाई सदस्यता के साथ राजनीति में महिला भागीदारी का संख्यात्मक प्रतिनिधित्व बढ़ा है। जन-प्रतिनिधित्व क़ानून द्वारा एक-तिहाई सदस्यता महिलाओं के लिए आरक्षित कर देने से समाज में पुरुष एवं महिला की बराबरी का सोच तेजी से बदल रहा है। महिलाओं में नए आत्मविश्वास का संचार हुआ है। उनकी अपने-आपके प्रति छवि सुधरी है, वे अपनी ही निगाहों में ऊँची उठी हैं। समाज में महिला संबंधी मुद्दों पर विशेष बल दिया जाने लगा है, महिलाओं के साथ होनेवाले अत्याचार, बल-प्रयोग आदि के विरोध की जागरूकता बढ़ी है, बालिका शिक्षा को बल मिला है। महिला मतदाताओं की इज़्ज़त बढ़ी है किंतु विडंबना यह है कि संसद एवं विधानसभाओं में महिला भागीदारी एक-तिहाई करने का बिल 1998 से ही लंबित है जो पुरुष-प्रधान समाज के अन्यायपूर्ण निर्णय का एक कटु प्रकरण है।

पंचायतीराज में महिला भागीदारी 

भारत में पिछले 57 वर्ष में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत होते जाने तथा महिलाओं में बढ़ रही चेतना के फलस्वरूप राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के प्रयत्न तो चलते रहे हैं किंतु आधारभूत परिवर्तन सन् 1994 में संविधान में 73 एवं 74वाँ संशोधन कर पंचायती राज क़ानून लागू करने से आया है जिसमें पंचायत, पंचायत समिति एवं ज़िला परिषद् में एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए हैं। अब हर पंचायत में एक-तिहाई महिला पंच हैं अर्थात् देश की 2,25,000 पंचायतों में 7,50,000 महिला सदस्य हैं तथा 75,000 महिला सरपंच हैं। हर पंचायत समिति में एक-तिहाई (17000) सदस्य महिलाएँ हैं तथा एक-तिहाई पंचायत समितियाँ में एक-तिहाई (1700) प्रधान महिलाएँ हैं। इसी तरह ज़िला परिषदों में एक-तिहाई (1583) सदस्य महिलाएँ तथा एक-तिहाई (158) ज़िला प्रमुख महिलाएँ हैं। राजस्थान में उक्त आरक्षण के आधार पर चुनाव हो रहे हैं। कर्नाटक, पश्चिमी बंगाल एवं केरल में ग्राम पंचायतों में एक-तिहाई से भी अधिक महिलाएँ हैं किंतु संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की सदस्यता ग्यारह प्रतिशत के आसपास है और एक-तिहाई महिला सदस्यता का बिल पिछले एक दशक से अभी भी लंबित है।

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भारतीय संसद में महिला भागीदारी

जहाँ तक भारतीय संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात है स्थिति बहुत निराशाजनक है। केवल इंदिरा गाँधी के 16 वर्ष तक प्रधानमंत्री रह जाने से संसद में महिलाओं की स्थिति सुधरी हुई नहीं मानी जा सकती। इंदिरा गाँधी, भंडारनायके, चन्द्रिका कुमारतुंगा, बेनज़ीर भुट्टो, ख़ालिदा ज़िया आदि महिलाएँ इन देशों की राजनीति में महिला सहभागिता के बढ़ने के फलस्वरूप नहीं रही बल्कि ये इन समाजों में वंशानुगत शासन के राजतंत्रीय संस्कारों के कारण अपने पूर्वज पुरुषों की ख्याति से लाभान्वित होकर रही हैं। दरअसल भारत की संसदीय राजनीति में महिलाओं की न केवल संख्या में भागीदारी सीमित रही है बल्कि सोमित संख्यावाली महिलाओं ने भी सक्रिय सहभागिता कम ही दिखाई है। महिलाओं पर पुरुष-प्रधानता की मिसाल बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के रूप में देखी जा सकती है जो है तो महिला किंतु राजनीतिक भागीदारी उनके पति लालूप्रसाद यादव की निर्णायात्मकता में सीमित रही है। इस प्रकार वर्तमान भारतीय राजनीतिक पृष्ठभूमि में संसद एवं विधानसभाओं में महिला भागीदारी बढ़ाने के लिए महिला प्रतिनिधियों के 33 प्रतिशत आरक्षण के विकल्प को चुना गया है जो भारतीय राजनीति में एक क्रांतिकारी मोड़ है जिसके स्पष्ट परिणाम एक-दो दशक में नज़र आएँगे।

महिला भागीदारी में पुरुषों का दख़ल 

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी जन-प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने से प्रभावित हुई है। अभी भी महिलाओं में अपने स्तर पर सोचने और निर्णय लेने की प्रवृत्ति कम विकसित हुई है जो हमारी चुनौती है। यद्यपि महिला पंचों-सरपंचों आदि के प्रशिक्षण आयोजित होते हैं। न महिलाओं के पति, पिता, भाई या अन्य पुरुषों के प्रभाव में ये महिलाएँ काम कर रही हैं। लेकिन यह प्रारंभिक दौर है। महिलाएँ राजनीति की प्रक्रिया को धीरे-धीरे समझती जाएँगी तो अपने विवेक से निर्णय लेने लगेंगी। इसके लिए एक और स्वयं महिलाओं एवं महिला प्रतिनिधियों को जागरूक होने की और उन्हें अन्य के द्वारा जागरूक करने की ज़रूरत है, वहीं दूसरी ओर पुरुषों द्वारा महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग देने की आवश्यकता है। यदि ऐसा हुआ तो धीरे-धीरे महिला सहभागिता के संख्यात्मक के साथ-साथ गुणात्मक परिवर्तन भी नज़र आने लगेंगे । राजनीति में महिला भागीदारी बढ़ाने की दृष्टि से दुनियाभर में भारत का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।

महिलाओं की भागीदारी से राजनीति का भविष्य

महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि राजनीति में महिला भागीदारी से राजनीति के स्वरूप में क्या-क्या परिवर्तन अपेक्षित हैं। राजनीति हमारे जीवन के सभी पक्षों-राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा आदि पर निर्णय लेती है, इसलिए उन निर्णयों में यदि हमारे समाज की आधी आबादी-महिलाओं की भागीदारी न हो तो न यह महिलाओं के विकास के हित में है, न ही इन राजनीतिक सभा संगठनों के हित में और न ही संपूर्ण समाज के हित में फिर महिलाओं में स्वभावतः जो स्नेह एवं सृजनशीलता है, अहिंसा है एवं शारीरिक बल के अहम् की मुक्ति है वह संपूर्ण राजनीति के व्यवहार को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ, शांत, संतुलित और सृजनशील बनाएगी। आज राजनीति में जो अपराधीकरण एवं भ्रष्टाचार है, स्वेच्छाचारिता और उग्रता है, महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से उसमें कमी आएगी। पंचायतों से लेकर हमारी संसदों की बैठकों में हिंसा कम होगी, शिष्टता और गरिमा बढ़ेगी तथा सामाजिक कुरीतियों एवं दुर्व्यसनों में निश्चय ही कमी आएगी। इसके अलावा समाज में शिशुओं, बालिकाओं, किशोरियों एवं युवतियों के विकास पर अधिक ध्यान दिया जाएगा। उनके शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार को बेहतर बनाया जाएगा, स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकारों को व्यावहारिक एवं मजबूत बनाया जाएगा। इन सबसे स्त्री और पुरुषों के संबंधों में अधिक बराबरी और संतुलन आएगा। निश्चय. ही राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से महिला एवं पुरुष दोनों के विकास का एक नया दौर शुरू हुआ है और इसके परिणाम बेहतर ही होंगे किंतु यह तभी संभव होगा जब एक ओर पुरुष वर्ग व्यापक सामाजिक-राजनीतिक हित में महिला सहभागिता पर गंभीर हो तथा दूसरी ओर देश की महिलाएँ अपने राजनीतिक अधिकारों की समता के लिए पुरज़ोर संघर्ष करें।

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Written by lokhindi
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