Global Warming Essay

Global Warming Essay in Hindi

Global Warming Essay

Global Warming Essay in Hindi / ग्लोबल वार्मिंग (धरती के ताप का बढ़ना) की बढ़ती गर्माहट पर आधारित हिंदी में निबंध (ग्लोबल वार्मिंग पर हिंदी में निबंध)


ग्लोबल वार्मिग (Global Warming) के कारण 21वीं शताब्दी में लू चलने, विनाशकारी मौसम और उष्णकटिबंधीय बीमारियों में बढ़ोतरी के कारण अनेक लोग मृत्यु की चपेट में आएंगे । मलेरिया का विस्तार ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बनकर उभरेगा।’’ क्योटो शिखर सम्मेलन के अंतरराष्ट्रीय चिकित्सक।

भूमिका : ग्लोबल वार्मिग: वसुधा के अस्तित्व का संकट-

ग्लोबल वार्मिग (Global Warming) (धरती के ताप का बढ़ना) पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक एवं चिंतनीय विषय है। वैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों ने अपने नवीनतम अध्ययनों में पाया है कि ग्रीन हाउस गैसों के ताबड़तोड़ उत्सर्जन पर प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के कारण ग्लोबल वार्मिंग की विश्वव्यापी समस्या और गंभीर होने लगी है और इससे नई बीमारियों और अन्य पर्यावरणीय संकट के फैलने का संकट बढ़ गया है ।वस्तुतः आज संपूर्ण विश्व के सामने अन्यान्य आर्थिक-राजनीतिक पेचीदगियों से अधिक बड़ा संकट ग्लोबल वार्मिंग का पर्यावरणीय संकट बनने जा रहा है। समुद्री सतह में वृद्धि हो रही है, बाढ़ व सूखे की आशंका बढ़ रही है, खाद्यान्न में गिरावट आ रही है तथा प्रति 10 वर्ष में लगभग 2.43 डिग्री सेल्सियस की वृधि वसुधा के अस्तित्व को ही लीलने का कारण बनी हुई है।

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Global Warming

ग्लोबल वार्मिग का अर्थ और कारण-

जहाँ एक ओर विश्व में उच्च तकनीकी औद्योगिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं जो मनुष्य के विकास की सूचक हैं, वहीं दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)की गर्माहट भी बढ़ रही है जो भावी मानवता के लिए भयानक सिद्ध हो सकती है। विश्वभर के पर्यावरणविद लंबे अर्से से चिंतित हैं कि कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा फ्लोरो कार्बन समूह की गैसों के निरंतर उत्सर्जन से, ग्रीन हाउस प्रभाव के चलते, दिनों-दिन धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी के वायुमंडल में अनगिनत गैसों के घनत्व प्रक्रियात्मक रूप से बनते रहते हैं। इन गैसों में कार्बन डाइ ऑक्साइड, ओजोन, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन तथा जलवाष्प आदि होते हैं। सूर्य की किरणें, ओज़ोन मंडल में बिछी ओजोन पटिका से छनकर पैराबैंगनी किरणों से मुक्त होकर आती हैं। पृथ्वी पर फैले संसाधनों को इस प्रकार आवश्यक ऊष्मा मिलती है तथा पृथ्वी से अनावश्यक ऊष्मा का पलायन भी इसी प्राकृतिक कार्य का महत्वपूर्ण भाग है। ग्रीन हाउस गैस के असंतुलित होने के कारण पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं जा पाती और इस प्रकार विश्वव्यापी तापमान में वृब्धि होती है।

ग्लोबल वार्मिग (Global Warming) का दुष्प्रभाव-

पृथ्वी पर बढ़ते तापमान से अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि के अलावा समुद्र की जल-राशि बढ़ने लगती है । बर्फ का पिघलना और समुद्र के जल-स्तर का ऊपर आना पृथ्वी के जलमग्न हो जाने की संभावना को बढ़ाता है। पिछले सौ वर्षों से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो सन् 2100 तक समुद्र का जलस्तर में एक मीटर तक वृधि हो सकती है । वस्तुतः विश्व के पर्वतों की बर्फ की परत में निरन्तर ह्रास हो रहा है। अंटार्कटिका का 3 हजार वर्ग किमी. का हिमखंड टूटकर बिखर चुका है । जल-स्तर के बढ़ने के फलस्वरूप मालद्वीप के सन् 2025 तक सागर में समा जाने की आशंका है। विश्व के वैज्ञानिकों की चेतावनी के अनुसार लू चलने, विनाशकारी मौसम, ऊष्ण कटिबंधीय बीमारियों में बढ़ोतरी होने से अनेक लोग मृत्यु की चपेट में आ रहे हैं। और यूरोप व अमेरिका में 2003 की गर्मियों में जो असाधारण तापमान में वृद्धधि हुई है उससे हज़ारों लोग गर्मी से काल के ग्रास बने हैं । मलेरिया और डेंगू रोगों का विस्तार हो रहा है। वैज्ञानिकों का यह भी निष्कर्ष है कि वायुमंडल में तापमान वृब्धि के कारण पृथ्वी की अपनी धुरी पर घूमने की रफ्तार भी कम होती जा रही है।

ग्लोबल वार्मिग (Global Warming) के लिए जिम्मेदार देश-

ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) के लिए मुख्य रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड की वृधि ही जिम्मेदार है। इसके अलावा मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड भी इसी प्रकार की गैसें हैं जो वातावरण की ऊष्मा को सोख लेती हैं। वाहन तथा अन्य स्थानों पर जलनेवाले ईंधन तथा उद्योगों द्वारा उत्सर्जित ये गैसें ग्लोबल वार्मिंग को ही बढ़ाती हैं । पर्यावरणविदों का मानना है कि पर्यावरण असंतुलित करने में 50 प्रतिशत वायु प्रदूषण जिम्मेदार है जो मुख्य रूप से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है। ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं। अमेरिका, जहाँ विश्व की कुल आबादी के केवल 4 प्रतिशत लोग रहते हैं, वहाँ से हर साल समूचे वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन का 25 प्रतिशत भाग धुएँ के रूप में धकेला जा रहा है । विकसित यूरोपीय देश और अमेरिका मिलकर संपूर्ण विश्व का 50 प्रतिशत वायु प्रदूषण उत्पन्न कर रहे हैं । इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग मुख्यतया विकासशील देशों द्वारा अपनाई गई तकनीकों का दुष्परिणाम है।

स्लोबल वार्मिग को नियंत्रित करने के लिए किए गए प्रयत्न-

सन् 1959 में अमरीका के वैज्ञानिक प्लास ने कार्बन डाई ऑक्साइड व क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों के पर्यावरण पर पड़ते असर को एक बार फिर रेखांकित किया लेकिन ठोस आंकड़ों का अभाव बताकर विकसित देशों ने स्थिति की गंभीरता स्वीकारना उचित नहीं समझा । यह समस्या सन् 1974 में कार्बन डाई ऑक्साइड व तापमान वृदधि के संबंधों को दर्शाते हुए कंप्यूटर मॉडलों व तत्संबंधी अनुसंधानों के जरिए सुलझा ली गई और तब कही जाकर सचेत हुए वर्ष बाद और उसके पाँच 1979 में जिनेवा प्रथम विश्व जलवायु सम्मेलन में समस्या की गंभीरता समझी गई। इसके बाद 1980 में ऑस्ट्रिया में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व विश्व मौसम विज्ञान संगठन की बैठक में जलवायु परिवर्तन को एक अंतरराष्ट्रीय समस्या के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई, हालाँकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी और धरती की ओजोन परत ने छीजना शुरू कर दिया था। सन् 1985 में वियना कन्वेंशन, 1987 में मांट्रियल प्रोटोकॉल 1988 में टोरंटो सम्मेलन” 1990 में द्वितीय विश्व जलवायु सम्मेलन, 1992 में रिओदिन जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन से लेकर 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे अनेक आयोजन पर्यावरण को बचाए रखने के सिलसिले में हो चुके हैं । क्योटो समझौते के तहत ग्रीन हाउस गैसों के विस्तार में सन् 2008 से 2012 के बीच यूरोपीय संघ को 8 प्रतिशत, अमेरिका को 7 प्रतिशत जापान को 6 प्रतिशत और कनाडा को 3 प्रतिशत कटौती करनी होगी, विकासशील देश इससे मुक्त रखे गए। इसके उल्लंघन पर दंड का प्रावधान भी रखा गया लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि केवल 83 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए जिनमें विकसित देशों में से केवल 14 देश हैं। कोपेनहेगन सम्मेलन में कोई ठोस निर्णय नहीं लिए जा सके और विकसित देशों के आर्थिक हितों के सामने पर्यावरण संरक्षण उपेक्षित हो गया। दोहा सम्मेलन से भी ठोस उम्मीदें कम ही हैं।

संभावित उपाय : विकासशील देशों द्वारा दबाव की जरूरत-

वस्तुत: ग्लोबल वार्मिग (Global Warming) एक ओर बढ़ती औद्योगिक तकनीक और अधिकाधिक व्यापार बढ़ाने के लिए अधिकाधिक उत्पादन करने एवं विश्व संगठनों के अत्यधिक दोहन का प्रश्न है। वहीं दूसरी ओर न केवल मानवता को बल्कि पूरी वसुधा को समुद्र में डूबने से बचाने और इस तरह समस्त अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती है । ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) मूलतः विज्ञान के दुष्प्रभावों को भली प्रकार समझते हुए विकसित देशों के आत्म-नियंत्रण से जुड़ी हुई समस्या है। विकासशील और अल्प विकसित देशों का यह दायित्व है कि वे पर्यावरण संबंधी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में ग्लोबल वार्मिग के प्रश्न को न केवल अधिक गंभीरता से उठाएँ बल्कि विकसित देशों पर दबाव भी बनाएँ और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर विश्व को ले जाने का वातावरण बनाएँ । यदि विकासशील देश कानकुन के विश्व व्यापार संगठन मुख्यत: 2003 के सम्मेलन की तरह संगठित और मजबूत बने रहे तो उनका इस तरह का विकसित देशों पर दबाव बढ़ाते हुए उनका दबाव अनुकूल परिणाम ला सकेगा।

उपसंहार: आत्महत्या से बचें-

विकसित देशों ने और गौणतः विकासशील देशों ने वर्तमान के लाभ के बदले समूचे विश्व के भविष्य को ही दाव पर लगा दिया है। हम सभी इस पृथ्वी को समुद्र के हवाले करने पर तुले हुए हैं और इस प्रकार क्रमिक रूप से आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं। हमें हर स्थिति में इस वसुधा के अस्तित्व को बचाना है। इसके लिए हमें करने के लिए बाध्य करना होगा । औद्योगिक तकनीक, उत्पादन-प्रक्रिया और व्यापारिक वृत्ति पर इस तरह से पुनर्विचार आज का मनुष्य अपने तकनीकी वैभव को भी बढ़ा सके और जिंदा भी रह सके।

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Written by lokhindi
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