मतलब परस्त पति – धोखेबाज पति की कहानी
मतलब परस्त पति
मतलब परस्त पति की हिंदी कहानी की किस प्रकार उसने धोखे से अपनी पत्नी को मार डाला / तोता-मैना के किस्से की रोचक दास्तान हिंदी में…
काशी हिन्दुओं का पवित्र स्थान है। जहां कदम-कदम पर मन्दिर, धर्मशालाएं एवं पाठशालाएं हैं। वहीं पर पंडित रामानन्द की भी पाठशाला है, जिसमें अनेक विद्यार्थी पढ़ते थे। उन्हीं विद्यार्थियों में मथुरा का रहने वाला एक बालक भी पढ़ता था। उसका नाम कृष्णदत्त था। वह लगभग चौदह वर्ष का था। काफी सुन्दर युवक था।
काशी नगरी से पांच कोस की दूरी पर एक बहुत बड़ा और रमणीक शहर था। वहां एक धनवान सेठ द्वारका प्रसाद रहता था। दान की कोई थाह नहीं होती। सेठ द्वारका प्रसाद ने एक लाख अशर्फियां दान स्वरूप देने के लिए रखी हुई थीं। उन अशर्फियों में से प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान देता था। यह बात जब काशी के विद्यार्थियों ने सुनी तो पंडित रामानन्द की पाठशाला के विद्यार्थी भी उस सेठ के यहां अशर्फियां लेने चल दिए। उन विद्यार्थियों में कृष्णदत्त भी था।
चलते समय सब विद्यार्थियों से रामानन्द पंडित ने कहा-‘‘शिष्यो! तुम लोग जा तो रहे हो परन्तु एक उपदेश याद रखना कि यदि रास्ते में श्यामा चिडिया बैठी हो तो उसके दाहिनी ओर से गुरजना।”
गुरुजी की यह बात सुनकर वह विद्यार्थी चल पड़े। जब वे लोग काशी से एक कोस की दूरी पर निकल गए तो एक विद्यार्थी ने कहा-“देखो! श्यामा चिड़िया बैठी है और कुछ बोल रही है।”
सब विद्यार्थी उसके दाहिनी ओर को चले, तभी वह चिड़िया उड़ गयी। सब विद्यार्थी कुछ दूर तक उसके पीछे दौड़े फिर सब थककर बैठ गए। परन्तु कृष्णदत्त ने कहा-“मैं तो गुरुजी की आज्ञा नहीं टालूंगा, चाहे वह चिड़िया कितनी भी दूर क्यों न जाए, परन्तु मैं इसके दाहिने ही जाऊंगा।”
यह विचार करके जिधर श्यामा चिड़िया उड़ी, उधर ही कृष्णदत्त भी चला।
अचानक चिड़िया एक पेड़ पर बैठ गई और कृष्णदत्त उसके दाहिने से गुजर गया। इस प्रकार कृष्णदत्त भी शहर में पहुंच गया। उस समय रात हो चुकी थी। वह थका-हारा सेठ के मकान पर पहुंचा, मगर उस मकान का दरवाजा बन्द हो चुका था। वह सुबह से भूखा-प्यासा तो था ही, एक दुकान के तख्ते पर सो गया।
ऐ तोते! उसी दिन शहर के राजा की बेटी जिसका नाम चन्द्रवती था। बारात दूसरे शहर से आई थी। परन्तु वह दूल्हा काना था। दूल्हे के पिता को चिंता थी कहीं मेरे काने बेटे को देखकर राजा अपनी बेटी का विवाह मेरे बेटे के साथ करने से इन्कार न कर दे। इससे बारात वापिस जाएगी और उसकी काफी बदनामी होगी, वह कहीं मुंह दिखाने के योग्य नहीं रहेगा। इससे उचित यह है कि किसी सुन्दर लड़के को बुलाकर उसे दुल्हे के कपड़े पहनाकर वेदी पर बैठा दें और जब फेरे पड़ जाएं तब उसे कुछ देकर विदा कर दें । इस प्रकार मेरे बेटे का विवाह हो जाएगा। यह विचार कर उसने अपने मंत्री से सलाह की।
“यह तो आपने बहुत अच्छा उपाय सोचा है।” मन्त्री ने कहा।
“यह भेद किसी पर प्रकट नहीं होना चाहिए। तुम शहर में जाकर किसी सुन्दर लड़के को पकड़कर ले आओ।” राजा ने मंत्री को समझाते हुए कहा।
मंत्री शहर में आया और लड़का ढूंढ़ने लगा। एक दुकान के बाहर कृष्णदत्त को सोता देखकर उसे जगाया और कहा–“ऐ ब्राह्मण पुत्र! हमें तुमसे एक काम है, यदि तुम हमारा काम कर दो तो हम तुम्हें एक हजार अशर्फियां देंगे।”
“क्या काम है?’ कृष्णदत्त ने पूछा।
आज रात हम तुम्हें दूल्हा बनाना चाहते हैं, यदि तुम्हें स्वीकार है तो जैसा हम कहें, वैसा ही करो। सुबह हम तुम्हें एक हजार अशर्फियां देकर विदा कर देंगे।”
मंत्री ने उसे लालच देने वाले अंदाज में समझाया।
“मुझे स्वीकार है।” कृष्णदत्त राजी हो गया।
मंत्री उसे अपने साथ ले गया और उसको दूल्हा बना दिया गया। बड़ी खुशी से नाच-रंग होने लगा और खुशियां मनायी जाने लगीं। वहां हिन्दू समाज के मुताबिक रस्में होने लगीं और राजा ने अपनी बेटी के साथ कृष्णदत्त के फेरे डलवा दिए। जब फेरे पड़ चुके तो राजकुमारी और कृष्णदत्त सोने के कमरे में चले गए।
ऐ तोते! उस समय कृष्णदत्त को विवाह का हर प्रकार से आनन्द तो प्राप्त हुआ, किन्तु कृष्णदत्त से उसके पेट की बात किसी ने नहीं पूछी कि तुमने कुछ खाया भी है या नहीं। वह बेचारा कल से भूखा था ही, जब राजकुमारी के साथ आनन्द करने बैठे तो भूख ने ऐसा सताया कि उसके प्राण निकलने लगे। अन्ततः विवश होकर कृष्णदत्त ने राजकुमारी से कहा—“राजकुमारी! मुझको इस समय भूख लग रही है, क्योंकि कल से मैंने कुछ नहीं खाया है।”
“प्रियतम! तुमने मुझे बताया क्यों नहीं, यदि तुम मुझसे कह देते तो मैं दासियों को बुलाकर खाना खिला देती। मगर अब तो रसोई घर बन्द हो चुका है। अब मैं क्या करूं?” राजकुमारी चिन्तित स्वर में बोली।
“प्राण प्यारी! चाहे कुछ भी उपाय करो, मुझे भोजन कराओ वरना मेरे प्राण निकल जाएंगे।”
“और तो कोई उपाय नहीं है, हां कल मेरी माता ने चावल से मेरी गोद भरी थी, वो सूखे चावल अभी तक रखे हैं।” राजकुमारी ने कहा।
कृष्णदत्त बोला-“उन्हीं को ले आओ।”
राजकुमारी वो चावल ले आई और अपनी पुरानी साड़ी जलाकर गंगाजल में उनको पकाया। कृष्णदत्त ने चावल खाकर पानी पिया, तब कहीं जाकर उसे आराम मिला।
तत्पश्चात् राजकुमारी और कृष्णदत्त ने सुहागरात मनायी और तमाम रात ऐश से गजारी। जब सुबह हुई तो कृष्णदत्त को मंत्री ने एक हजार रुपये देकर विदा कर दिया।
ऐ तोते! कृष्णदत्त तो काशी चला गया और लड़की को विदा करने की तैयारियां होने लगीं। तब राजा ने कुछ सोचकर अपने बेटे की आंख पर पट्टी बांध दी। जब वह ससुराल पहुंचा तो सब स्त्री-पुरुष उसको देखने लगे और कहने लगे कि, “रात तो दूल्हे की आंख सही-सलामत थी अब क्या हो गया?”
तब दूल्हे के साथियों ने कहा-“आज सुबह से ही राजकुमार की आंख दुखनी आ गई है।”
यह सुनकर चन्द्रावती भी उसे देखने लगी। उसने उसे देखकर पहचान लिया और मन ही मन कहने लगी यह व्यक्ति मेरा पति नहीं है। दाल में कुछ काला लगता है। आप यह मतलब परस्त पति की कहानी लोकहिंदी पर पढ़ रहे है!
अब चन्द्रावती ने अपने पिता को बुलाया और हाथ जोड़कर बोली-“यह बात कहने की तो नहीं है, किन्तु बिना बताए काम नहीं चलेगा, क्योंकि इससे मेरा धर्म खराब होता है। सच बात तो यह है पिताजी कि जिससे मेरे फेरे हुए थे, यह वह राजकुमार नहीं है।’
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“अच्छा हम अभी पता लगाते हैं।” राजा ने कहा और वहां से चला गया।
राजा ने जनवासे में से राजकुमार को बुलाकर उसकी आंख पर बंधी पट्टी खुलवाकर देखा तो पाया कि वह तो काना है।
यह देखकर राजा को बड़ा क्रोध आया, क्रोधित होकर वह बोला-“तुम इसी समय मेरे राज्य से निकल जाओ और उस लड़के को लाओ जिसके साथ मेरी बेटी के फेरे पड़े थे।”
चन्द्रावती ने कहा-”पिताजी आप क्यों चिन्ता करते हैं। माता-पिता तो जन्म के साथी हैं, कर्म के नहीं होते। इसमें आपका क्या दोष है? मैं एक प्राचीन कथा आपको सुनाती हूं-भद्रपुर नामक एक शहर था। उसमें प्रेमदत्त नामक सेठ रहता था, जिसके सात लड़के थे। भगवान की करनी ऐसी हुई कि उसके सातों बेटे और छः बहुएं मर गयीं। केवल छोटी बहू जीवित बची। सबसे छोटे लड़के की बहु गर्भवती थी। अपने घर का ताला लगाकर वह अपने मायके चली गई क्योकी मकान में एक प्रेत आत्मा ने निवास कर लिया था।
उस स्त्री के यहां एक लड़का पैदा हुआ। वह एक दिन अपनी आयु के बच्चों के साथ खेल रहा था कि एक लड़के ने ताना दिया कि हम तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे क्योंकि तुम अपना घर-बार छोड़कर अपने मामा के टुकड़ों पर पल रहे हो।
यह सुनकर सेठ के पौत्र को बहुत क्रोध आया। वह अपनी मां के पास आया और पूछने लगा—“हमारा घर कहां है, मां?”
मां बेटे की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गयी।
परन्तु लड़के ने कहा-“यह मेरा घर नहीं है।”
लड़के की नानी और मामा ने भी बहुत समझाया कि बेटा यही तुम्हारा घर है, किन्तु लड़का नहीं माना।
“या तो मुझे मेरा घर बता दो, वर्ना मैं जहर खाकर मर जाऊंगा।” लड़के ने जिद पकड़ ली थी।
बेटे की जिद देखकर मां ने कहा-“बेटे हमारा घर तो भद्रपुर में है। उस घर में एक प्रेतात्मा रहने लगी है, उसने हमारे घर के सभी सदस्यों को मार डाला। अब मैं अकेली रह गयी थी। उस समय तू मेरे गर्भ में था। मैं तेरे प्राण बचाने के लिए उस घर में ताला लगाकर यहां चली आई। इससे आगे वहां का हाल मुझे नहीं मालूम।”
यह सुनकर उसने अपनी मां से मकान की चाबी ली और भद्रपुर पहुंचा। जैसे ही उसने ताला खोला वैसे ही वह प्रेतात्मा आकर कहने लगी—‘‘यहां मत आना, वरना मैं तुझे खा जाऊंगा। तेरे परिवार के सदस्यों को मैं पहले ही खा चुका हूं।”
प्रेत की यह बात सुनकर लड़के ने कहा-“अच्छा, यदि मैं तुझको अच्छे-अच्छे पकवान खिलाऊ, तब तो तू मुझको नहीं खाएगा?”
प्रेत ने उसकी बात स्वीकार कर ली। लड़के को वहां रहते हुए काफी दिन हो गए। वह उस प्रेत को अच्छे-अच्छे पकवान बनाकर खिलाता था। एक दिन लड़के ने प्रेत से पूछा- “आप प्रतिदिन कहां जाते हैं?”
“मैं प्रतिदिन विधाता के दरबार में जाता हूं।” प्रेत ने जवाब दिया।
“आप मेरा एक काम कर दोगे?” लड़के ने उससे कहा।
प्रेत ने स्वीकृति दे दी।
तब लड़के ने प्रेत से कहा-“आप विधाता से यह मालूम करना कि मेरी आए कितनी है?”
“अच्छा।” प्रेत ने कहा और चला गया।
जब प्रेत वापस आया तो लड़के ने पूछा कि विधाता ने क्या बताया?
“तेरी आयु सत्तर वर्ष की है।” प्रेत ने उसे बताया।
तब लड़के ने कहा-“अब यह मालूम करना कि क्या मैं अपनी आयु में से दो-चार वर्ष और घटा या बढ़ा सकता हूं।”
विधाता की ओर से जवाब आया- “मैं सत्तर वर्ष लिख चुका हूं, इसमें कोई कमी या बढ़ोतरी नहीं हो सकती।”
अगले दिन जब प्रेत चला गया तो लड़का एक जलती हुई लकड़ी लेकर द्वार पर बैठ गया। जब प्रेत वापस आया और उसने खाने को मांगा तो लड़के ने कहा-
“आज तो खाना नहीं है।”
“तो मैं तुझे खाऊंगा।” लड़के के मुंह से इन्कार सुनकर प्रेत ने कहा।
तब लड़का जलती हुई लकड़ी को लेकर उसके पीछे भागा और बोला_“अरे मूर्ख! जब विधाता में भी यह शक्ति नहीं है कि वह मेरी आयु को कम कर सके तो तेरी क्या मजाल है कि तू मुझे खा जाए।”
लड़के की बात सुनकर प्रेत वहां से भाग निकला। तब लड़का अपनी मां को लेकर आया और कुछ ही दिनों में सब कुछ ठीक हो गया।
मतलब परस्त पति की हिंदी कहानी
“विधाता का लिखा कभी गलत नहीं होता, पिताजी । मेरा पति आपके ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा। काशी जैसे बड़े शहर में मुनादी लगवा दीजिए कि हमारी बेटी चन्द्रावती एक प्रश्न का उत्तर चाहती है जो कोई इस प्रश्न का उत्तर देगा उसे एक लाख रुपए इनाम दिया जाएगा।” चन्द्रावती अपनी कथा खत्म करने के बाद बोली।
बेटी की यह बात सुनकर राजा ने वैसा ही किया। इस बात को सुनकर बहुत सारे लोग आए। राजकुमारी ने सबके सामने अपना प्रश्न किया—“विवाह के बाद सुहागरात के वक्त दूल्हे को बहुत जोर से भूख लगी। रसोई घर बन्द हो चुका था, दुल्हन के पास खाने को कुछ था नहीं । बोलो दूल्हे की भूख दुल्हन ने कैसे मिटाई ।”
चन्द्रावती का यह प्रश्न सुनकर बहुत से पंडित विद्वान तो चुप हो गए तथा कुछ लोग अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से उत्तर देने लगे। मगर रानी के मतलब का कोई उत्तर नहीं था। तब रानी ने उन सबको विदा कर दिया। आप यह मतलब परस्त पति की कहानी लोकहिंदी पर पढ़ रहे है!
ऐ तोते! इसी प्रकार प्रश्न करते-करते रानी को बहुत दिन गुजर गए। एक दिन कृष्णदत्त ने भी सुना कि रानी चन्द्रावती किसी प्रश्न का उत्तर चाहती है और जो कोई उस प्रश्न का उत्तर देगा वह उसको एक लाख रुपए पुरस्कार में देगी।
कृष्णदत्त शहर में आ गया और चन्द्रावती के महल में पहुंचा। तब रानी ने अपने पिता को अपने पास बैठाकर वही प्रश्न दोहराया। सुनकर कृष्णदत्त को बीता हुआ समय याद आ गया।
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“आधा हाल क्यों कहती हो पूरा हाल कहो।” कृष्णदत्त ने कहा।
कृष्णदत्त की यह बात सुनकर रानी चन्द्रावती चौंक पड़ी और सोचने लगी कि हो न हो यही मेरा पति है। क्योंकि इसको क्या पता कि मैंने आधी बात कही है।
तब रानी कृष्णदत्त से बोली_“मझे तो इतना ही प्रश्न मालुम है। यदि आपको आगे को मालूम हो तो आप प्रश्न पूरा कर दीजिए।”
इस पर कृष्णदत्त ने कहा-“रानी चन्द्रावती का दूल्हा काना था, लेकिन राजा ने किसी और को दूल्हा बनने के लिए राजी किया और उसे काफी इनाम देने का वचन भी दिया। मगर वह भूखा था, दौलत का नहीं, पेट का। क्योंकि उसने दो दिन तक कुछ नहीं खाया था। उसी भूखे को दूल्हे का लिबास पहनाया और राजकुमारी के साथ विवाह के फेरे डलवा दिए।
सुहाग कक्ष में पहुंचते ही दूल्हे की भूख ने विकराल रूप धारण कर लिया, वह भूख से व्याकुल होने लगा। रसोई घर बन्द हो चुका था। इसलिए राजकुमारी ने अपनी गोद के चावलों को गंगाजल में पकाकर अपने दूल्हे की भूख मिटाई ।” यही प्रश्न भी है और जवाब भी कृष्णदत्त ने विस्तार से प्रश्न और उत्तर दोनों दे दिए।
कृष्णदत्त का प्रश्न और उत्तर सुनकर चन्द्रावती ने अपने पिता से कहा- “पिताजी! यही मेरा पति है।”
राजा ने कृष्णदत्त की खूब आवभगत की । चन्द्रावती ने भी अपने पति की खूब सेवा की। दोनों में बहुत प्रेम हो गया। एक-दूसरे के बिना चैन नहीं पड़ता था। एक दिन कृष्णदत्त ने सोचा–“जब से माता-पिता छूटे हैं, तब से उनका कुछ पता नहीं, अब उनको देखना चाहिए। किन्तु कठिनाई यह है कि रानी को कैसे ले जाऊं। जब वह मेरे साथ रानी को देखेंगे तो कहेंगे कि तूने क्षत्रिय की बेटी से विवाह किया है। इसलिए वो मुझे घर से निकाल देंगे और यदि रानी के बिना जाता हूं तो यह स्वयं वहां पहुंच जाएगी।” यह विचार करके उसने तलवार से रानी चन्द्रावती को मार डाला
और स्वयं बहुत-सा धन-दौलत लेकर अपने देश को चला गया।
‘‘ऐ तोते! जरा नजरें ऊंची करके उत्तर दे कि रानी ने कृष्णदत्त के साथ कैसा व्यवहार किया था और उस मतलब परस्त पति ने रानी को मार डाला? ऐसी है ये मर्दजात ।”
तब तोते ने कहा- “ऐ मैना! मैं तेरी इस कथा का उत्तर देता हूं और तुझे बताता हूं कि नारी जाति ही सबसे ज्यादा बदजात होती है। तू जरा ध्यान लगाकर सुन-
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