Short Moral Stories in Hindi – मेहनत की कमाई
Short Moral Stories in Hindi – मेहनत की कमाई
Moral Stories in Hindi / Short Moral Stories
कस्बा नानकपुरा में मोहन नामक एक युवक रहता था । वह बड़ा आलसी और कामचोर था । उसके इस स्वभाव से उसके पिता उससे बड़े परेशान रहते थे । अपने इसी आलसीपन के कारण वह न तो पढ़ पाया था नहीं कोई काम ही सीख पाया था ।
जब भी उसके पिता उसे स्कूल भेजते थे, तो उसके अध्यापकों की यही शिकायत हमेशा बनी रहती थी कि ‘आपका बेटा मोहन बड़ा आलसी किस्म का है, न तो यह कोई स्कूल का काम करता है और ना ही पढ़ने-लिखने में इसकी रुचि है । अतः इसे कोई काम सिखा दे तो अच्छा होगा ।’
और फिर जब वे मोहन को किसी काम पर छोड़ कर आते, तो वहां से भी उसकी ही शिकायत रहती थी ।
उसके पिता आसाराम जी एक अच्छे मूर्तिकार थे । उनकी बनाई मूर्तियों की चर्चा आसपास क्षेत्र में खूब होती थी । इसलिए उनकी बनी मूर्तियों खरीदने के लिए हर व्यक्ति का मन ललचा उठता था ।
पिता इतना बड़ा मूर्तिकार और बेटा निकम्मा !
उनको यह बात हमेशा अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाट रही थी । वे उसे कोई काम सिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते थे । परंतु मोहन अपने आलस्य और कामचोर प्रवृत्ति कारण कोई काम नहीं सीख पाया । इसी कारण आसाराम जी का मन और अधिक दु:खी रहने लगा ।
उसके सामने एक और मुसीबत यह थी कि वह अपने बेटे को डांटते डपटते भी नहीं थे । इसका कारण यह था कि वह बिन मां का बच्चा था ।
एक बार की बात है, आसाराम मूर्तिकार बीमार पड़ गये । उनकी बचने की कोई आशा न रही । उनको यह चिंता हमेशा सताती रहती थी उनके मरने के बाद उनके बेटे मोहन का क्या होगा ?
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उस समय भी इसी बात से चिंतित थे । अंतः उन्होंने अपने बेटे मोहन को अपने पास बुलाया और बौले- “मोहन बेटे ! मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है । इसलिए मैं तुम्हें एक ऐसा खजाना देना चाहता हूं जिससे तुम्हारा जीवन आराम से कट जाये । मैं समझता हूं कि तुम खजाने को ढूँढने का अवश्य प्रयत्न करोगे ।”
इतना कहकर मोहन के पिता आसाराम मूर्तिकार ने सदा के लिए आंखें मूंद ली ।
अपने पिता को मृत अवस्था में देखकर मोहन की आंखें में आंसू भर आये । उसको पैरों तले से धरती खिसकती महसूस होने लगी । उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया ।
अपने पिता की मृत्यु के बाद मोहन पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा । वह कई दिनों तक खोया-खोया रहा । इधर-उधर भटकता रहा ।
फिर एक दिन उसने प्रण किया कि वह उस घटना को हमेशा के लिए भुला देगा ।
किंतु मोहन को अपने पिता के द्वारा कहे के अंतिम वाक्य याद आते रहते थे । उस समय भी उसे वही वाक्य याद आ रहे थे- “मोहन बेटे ! मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है । इसलिए मैं तुम्हें ऐसा एक खजाना देना चाहता हूं, जिससे तुम्हारा जीवन आराम से कट जाये । मैं समझता हूं उस खजाने को ढूंढने का अवश्य प्रयत्न करोगे ।”
वह उठा और अपने पिता की कमरे में गया । वहां खजाने की तलाश करने लगा । और अपने पिता के कमरे को खंगाल डाला, लेकिन उसे अपने पिता का खजाना नहीं मिला ।
आखिरकार वह कौन सा खजाना था, जिसके बारे में आशाराम अपने बेटे को बता रहे थे ? मोहन के समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
कमरे में तो केवल मूर्तियां बनाने का सामान, रंग और कुछ अधूरी मूर्तियां रखी थीं ।
फिर मोहन मन में यही ख्याल लिये कमरे से बाहर आया कि यह खजाना उसे कहा मिलेगा, जिसको उसके पिता ने बनाया था ।
Short Moral Stories in Hindi
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दिन बीतते गये । मोहन जैसे-तैसे अपने दिन काटने लगा । कभी वह किसी के पास बैठकर अपना मन हल्का कर लेता, कभी किसी के घर जाकर अपने मन की बात करने लगता ।
कुछ दिन तक वह धन उसके काम आता रहा | जिसको उसके पिता छोड़कर मर गए थे । और जब उसका यह धन समाप्त हो गया तो मोहन बड़ा दु:खी और परेशान रहने लगा ।
उसको तो कोई काम धंधा आता ही नहीं था, जिससे वह कुछ कमा कर अपना पेट भी पाल सके ।
अचानक उसे ध्यान आया कि उसके पिताजी के कमरे में कुछ मूर्तियां रखी हैं । वह तुरंत कमरे में घुसा और वह मूर्तियां लेकर बाजार में गया ।
बाजार में उसके पिता के द्वारा बनाई गई मूर्तियों की तो पहले से ही मांग थी । अंतः मूर्तियों को बाजार में रखते ही उनके चाहने वालों ने उन्हें हाथों हाथ खरीद लिया और अन्य मूर्तियों की मांग भी बाजार में उठी ।
मूर्तियों के बिक जाने और अन्य मूर्तियों कि मांग तथा पैसे के लालच ने मोहन का दिमाग खराब कर दिया ।
वह घर में अन्य मूर्तियों की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा | लेकिन उसे कोई भी संपूर्ण मूर्ति नहीं मिली, वहां अधूरी मूर्तियां बची थी ।
तब मोहन ने सोचा- ‘अगर इन अधूरी मूर्तियों को पूरा करके बेचा जाये तो वे बिक सकती हैं ।’
अतः सबसे पहले उसने अधरंगी और बेरंगी मूर्तियां निकाली उन्हें रंगना शुरू किया ।
एक-दो मूर्तियाँ खराब हुई । मगर फिर वह जल्दी अच्छी रंगाई करने लगा ।
मूर्तियों को रंग-रंगकर बाजार ले जाता और अपनी जीविका चलाता ।
किंतु वे मूर्तियां जल्दी खत्म हो गयीं ।
अब वहां अधूरी बनी मूर्तियां बची थी । उन मूर्तियों में से किसी की नाक नहीं बनी हुई थी, तो किसी का सिर नहीं बना हुआ था ।
मोहन ने सोचा- अगर वह इन मूर्तियों को पूरा कर ले और फिर उन्हें रंग कर बेचे तो ये आसानी से बिक जायेंगी ।
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यह सोचकर मोहन मिट्टी और रंगाई आदि का सामान लेकर बैठ गया । उसने एक दो मूर्तियाँ खराब की, लेकिन फिर धीरे-धीरे वह अच्छी मूर्तियाँ बनाने लगा ।
अब वह मूर्तियां तैयार कर उन्हें बाजार मे बेचकर अपना जीवन यापन कर रहा था ।
उसकी मृर्तियाँ की मांग बाजार में उसी तरह होने लगी, जिस प्रकार उसके पिता द्वारा बनाई गई मूर्तियों की थी ।
वह मूर्तियों को बनाकर बाजार ले जाता और उसका माल भी हाथो बिक जाता ।
उसका नाम भी अपने पिता की तरह विख्यात होता चला गया ।
अब मोहन की समझ में आया कि जिस खजाने को वह इधर-उधर ढूंढ रहा था, वह और कुछ नहीं बल्कि उसके पिता की कला थी । लेकिन पहले तो वह इस खजाने को ढूँढ नहीं पाया था, किंतु जब उसने अपनी मेहनत और लगन के द्वारा उस खजाने को ढूंढा तो उसे पता चला कि उसके पिता उससे क्या कहकर मरे थे ।
अब मोहन खूब मेहनत और लगन के साथ अपना काम करता और मजे से अपना जीवन जीता ।
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