भारत में जल संकट निबंध – Water Crisis in India
भारत में जल संकट निबंध
Water Crisis in India Essay in Hindi / भारत में जल संकट: अस्तित्व और विकास पर प्रश्न चिह्न पर आधारित हिंदी में निबंध (भारत में जल संकट पर हिंदी में निबंध)
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भूमिका – भारत में जल संकट:
पृथ्वी के अस्तित्व के पाँच घटकों- क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर में जल का स्थान प्राणियों के अस्तित्व और विकास दोनों में उत्कृष्ट है। ऋग्वेद कहता है- ‘तो आपो देवीरिह मामवंत’ अर्थात् जल हमारी रक्षा करे। ‘महाभारत’ में व्यास नदियों को ‘विश्वस्य मातर’ अर्थात् लोकमाताओं के रूप में याद करते हैं। ऋषि कहता है- यज्ञों से स्वर्ग मिलता है। किंतु मंदिरों, तालाबों और वाटिकाओं के निर्माण से संसार से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार मानव चेतना में हज़ारों वर्षों से जल तत्व की प्रतिष्ठा रही है किंतु विज्ञान-चेतना से संपन्न आधुनिक मनुष्य ने जल के अति दोहन एवं प्रदूषण ने जल का जो मानवकृत संकट उपस्थित किया है वह किसी भी तरह सामूहिक आत्मघात से कम नहीं है। भारत में जनसंख्या का बढ़ता दबाव सर्वाधिक है इसलिए इस आत्मघात से बचने की चुनौती सबसे पहले भारत के सामने है।
भारत में जल संकट का स्वरूप:
यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 97.2 प्रतिशत जल समुद्रों के ) रूप में है तथा मात्र 0.6 प्रतिशत भूमिगत (95 प्रतिशत) एवं धरातल पर (5 प्रतिशत मूदु जल के रूप में उपलब्ध है। भारत में 1869 घन किलोमीटर जल उपलब्ध है तथा प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 610 घन मीटर उपभोग करता है जोकि विकसित देशों की तुलना में काफ़ी कम है किंतु जनसंख्या दबाव की वजह से एवं राजस्थान जैसे जल शुष्क प्रदेशों में यह उपभोग 300 घन मीटर से भी कम है जिससे जल के अभाव एवं प्रदूषण के कारण विकास एवं स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिक शोध संस्थान के शोध-सर्वेक्षण के अनुसार देश में उपलब्ध जल राशि का 70 प्रतिशत भाग अपेय है, दूषित जल से प्रतिवर्ष 700 करोड़ रुपये से भी अधिक हानि होती है।
राजस्थान में भू-जल का दोहन भू-जल भंडार में आवक से 150 प्रतिशत अधिक किया जा रहा है, अल्पवृष्टि के परिणामस्वरूप सभी 33 ज़िलों में भू-जल स्तर प्रतिवर्ष 5 से 10 फुट की दर से नीचे गिरता जा रहा है । राजस्थान भारत की 13 प्रतिशत भू-भागवाला प्रदेश होकर भी देश का एक प्रतिशत जल ही प्राप्त किए हुए है। 237 खंडों में से 109 खंड डार्क जोन में आ चुके हैं। इस प्रकार राजस्थान में तो जल की उपलब्धता, संरक्षण एवं स्वच्छता तीनों ही भयंकर संकट से गुज़र रहे हैं।
भारत में 1947 में प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता 6008 घन मीटर थी । जो 2008 में 2000 घन मीटर से भी कम रह गई है। यह जनसंख्या-वृद्धि एवं जल-भंडार में कमी दोनो कारणों से हुई है। जल उपलब्धता की विषमता इस कदर है कि राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश आदि प्रदेशों में कई क्षेत्रों में 500 घन मीटर से भी कम है ।जल-स्वच्छता की दृष्टि से भारत विश्व में 120वें स्थान पर होना तथा केवल 42 प्रतिशत लोगों को ही स्वच्छ पानी उपलब्ध होग (वल्र्ड वाच संस्थान) हमारे जल-प्रदूषण की विडंबना का आत्मघाती प्रमाण है।
भारत में जल संकट के कारण:
भारत में जल-संकट के पीछ एक ओर आज़ादी के बाद जनसंख्या में तीन गुना वृषि तथा प्रति व्यक्ति जल उपभोग में वृद्धि तो है ही लेकिन दूसरी ओर सिंचित कृषि-क्षेत्र का निरंतर होता विस्तार और विशेष रूप से खेतों में नालियों के माध्यम सिंचाई करने की वह पारंपरिक प्रणाली है जिसमें 60 प्रतिशत पानी वाष्प के रूप में उड़ जाता है । यद्यपि पिछले दो दशकों में मौसम का मिजाज़ तेजी से बदल रहा है तथा सूखा एक प्राकृतिक आपदा बनता जा रहा है किंतु जल संकट की इस बिकरालता के लिए मानव गतिविधियाँ अधिक ज़िम्मेदार हैं।
अगर हड़प्पाकालीन मनुष्य धौलावीरा (कच्छ का रण) में पत्थर का बाँध बनाकर हजारों वर्ष पहले जामनगर से जूनागढ़ तक खानाबदोश मालधारी ‘विरडा’ पद्धति द्वारा तथा दुनिया के न्यूनतम वृष्टि-स्थल जैसलमेर में सर, कुंड आदि के द्वारा जल – संरक्षण कर सकता है तो आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के युग में जल-समस्या को निरंतर बढ़ाते जाना हमारी सरकार एवं समाज के विवेक एवं संकल्प पर प्रश्न-चिहन खड़े करता है । वस्तुत हम पारंपरिक जल प्रणालियों को बराबर नष्ट करते जा रहे हैं । राजस्थान के झुंझुनू ज़िले में 150 से अधिक जोहड़ (छोटे तालाब) सूखे हैं, बीकानेर के तालाब लगभग सूख चुके हैं, हज़ारों बावड़ियाँ, झालरें, नदियाँ, नाड़े, कुंड निर्जल हो चुके हैं । वस्तुतः हम समाज की उस मूल्यवत्ता और सामाजिक आचार-संहिता को नष्ट करते जा रहे हैं जो हमें सामुदायिक अस्तित्व को प्रकृति के साथ दीर्घकाल तक जोड़ रखने का स्रोत और कौशल देती है। परंपरागत जल-संरक्षण की संपन्नता का मुख्य आधार जल का विवेकपूर्ण उपयोग तथा भू-जल दोहन के साथ-साथ उनका पुनर्भरण का चिंतन रहा है। इसीलिए पश्चिमी राजस्थान जैसे मरु प्रदेश में हज़ारों वर्षों से चली आ रही बस्तियों ने जल-संरक्षण की कम ख़र्चींली, उपयोगी एवं टिकाऊ संरचनाओं जबकि अब आधुनिक तकनीकी मनुष्य ने राजस्थान नहर के तल को जो इतना छिद्रयुक्त बनाया है वह जल-अपव्यय एवं ‘सेम समस्या का ही शर्मनाक उदाहरण नहीं है बल्कि यह आधुनिक भारतीय प्रशासन के मूल्य-क्षरित तल में वह छेद है जो उसे निरंतर ‘पानी-रहित’ बनाता जा रहा है।
भारत में जल-संकट के निवारण के उपाय:
पर्याप्त जल की उपलब्धता मनुष्य के अस्तित्व एवं सुविधापूर्वक जीवन जीने के मानव अधिकार एवं मूल अधिकार से जुड़ा प्रश्न है इसलिए हम पानी को अपने हिस्से की जायदाद मानकर अन्य लोगों के इन आधारभूत अधिकारों का हनन नहीं कर सकते इसलिए जल-संकट से उबरने के उपायों में प्रमुख तो पूरे समाज में इस चेतना का प्रसारण करना है। जल एक समाज-संपदा है इसलिए इसकी उपलब्धता, संरक्षण और उपयोग में वैयक्तिक सुविधा के साथ-साथ सामाजिक बोध आवश्यक है।
जल उपलब्धता के लिए हमें गहन वृक्षारोपण एवं परंपरागत जल-संरचनाओं के निर्माण में केवल सरकार पर निर्भर न रहकर, सामुदायिक सहभागिता से बावड़ी, सर, झालरा, नाड़ी, कुंड आदि का निर्माण-पुनर्निर्माण करना होगा, देश-प्रदेश के नदी-तालाबों के भू-स्तरीय जल का समान वितरण करना होगा जिसमें देश में नदियों के परस्पर जोड़ने की योजना महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः जल-संरक्षण में ही हमारे समाज की परपरागत जल-प्रबंधन के उद्देश्यों एवं दर्शन की चेतना जाग्रत कर समुदाय की संवेदनशीलता एवं सृजनशीलता को पुनर्जीवित करने का महनीय कार्य निहित है।
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